अनकही सी मनकही
अनकही सी मनकही
————————-
बहुत बार ऐसा लगता है न, जैसे ,
हम जो कहना चाहते हैं,
वह कोई सुनना ही नहीं चाहता !
हम जो समझाना चाहते हैं,
वह कोई समझना ही नहीं चाहता !
होती है तब बहुत पीड़ा,
क्या करें और क्या न करें ,
क्या स्वयं को ही अपनी मनकही,
सुनाएं, दिखाएं या समझाएं ?
क्या हमेशा ही अब इसी तरह
जीवन बिताएं ?
औरों की मनकही सुनने,देखने समझने को ही
अपनी नियती बनाएं ?
और तब जब हमसे यह न हो पाए तो फिर क्या ,
इस अंबर, धरा या सागर को ही अपनी
व्यथा सुनाएंं ?
लगता है शायद बस वही हैं जो
देखेंगे,सुनेंगे और समझेंगे हमारी
वो मनकही
जो अक्सर अनसुनी, अनदेखी और अनबूझी
रह जाती है !
क्योंकि न जाने कितनी ही
कहानियां, किस्से, कविताएं, व्यथाएं,
योजनाएं , परियोजनाएं दम तोड़ जाती हैं
हमारे भीतर ही घुटकर अक्सर !
~Sugyata