अनंत यात्रा
एक पथिक चला जा रहा निर्बाध अपने गंतव्य की ओर ,
समय के थपेड़ों की मार सहते हुए क्लांत चेहरा. असमय झुर्रियों को वहन किए हुए ,
आशा की किरण लिए मृगतृष्णा की भांति ,
उसे पता नहीं है कि यह एक अनंत है ,
जिसकी अति में उसके पैर लड़खड़ा जाएगें ,
वह गिर जाएगा , फिर भी घिसटेगा ,
घुटने छिल जाएंगे ,
फिर भी चलने की चेष्टा करेगा,
तब उसे कोई संबल नहीं मिलेगा ,
क्योंकि अनंत शून्य है ,
उसे पाने की चेष्टा करना व्यर्थ है ,
इस चेष्टा में आदिकाल से मानव को क्या मिला ? चंद कहकहे फिर सिसकियाँ ,
और फिर चंद टुकड़े धातुओं के ,
जिन्हें पाकर प्रसन्न होता हुआ ;
खोकर गमगीन होने का चक्र ,
निर्बाध गति से सूर्य और चंद्रमा की आंख मिचौनी की तरह ,
जिस में उलझा हुआ मानव ,
किसी पहिए में लिपटे हुए तिनके की तरह ,
थपेड़े खाता हुआ ;
इस छलावे में कि पहिए की गति का उसकी यंत्रणा से संबंध है ,
अंत में चंद राख और जली लकड़ियों;
या मिट्टी अथवा गिद्ध कौव्वौं का सानिध्य ,
क्या यही जीवन की परिभाषा है ?
यदि नहीं , तो फिर और क्या……