अनंत का आलिंगन
न जाने किसकी आँखों से
बरस रहा सावन बिन सावन
बूंदे अति शीतल हैं फिर भी
छलनी सीना होता क्यों साजन
न जाने किसकी आँखों से………………..
झर-झर झर-झर बरसे नैना तरसे,
गढ़-गढ़ बादल बन कर गरजे
जिया डरावे, हूँक उठावे
आस मिलन जगाए सावन
न जाने किसकी आँखों से………………..
हृदय है व्याकुल आकुल तन-मन
धुंधला-धुंधला दिखता दर्पण
हार सिंगार लगे आधा आधा
झुलसाय विरहा रही तेरी जोगन
न जाने किसकी आँखों से………………..
ठण्डी बारिश से सुलग रही है
धरा गगन को तरस रही है
छाया बसंत, कोयल और डाली
अब दिखने लगी चहुँ ओर अगन
न जाने किसकी आँखों से………………..
भर बाँहों में पिया लगा ले
अधर-अधर की प्यास बुझा दे
सांसो में दहक रहा अब
बन समीर का महका चन्दन
न जाने किसकी आँखों से………………..
सुध बुध विसरा ऐसे खो जाऊं
बज्र पाश मध्य में मैं जाऊं
पलक रहें पलकन में अटकी
चिर अनंत हो जाये आलिंगन
न जाने किसकी आँखों से………………..
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