अध्ययन अध्यापन पर पड़ता आज का अनैतिक प्रभाव!!
अध्ययन-अध्यापन पर पड़ता आज का अनैतिक प्रभाव!!
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मानव जीवन प्राप्त करने का मूल उद्देश्य क्या होना चाहिए ? इसकी जानकारी हमें अध्यन-अध्यापन के माध्यम से ही प्राप्त होती है। कभी हमारे अध्ययन का मूल स्रोत गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था हुआ करती थी जहाँ हमें धर्मशास्त्र, कर्तव्यपरायणता, शस्त्र विद्या, दानशीलता, क्षमाशीलता, सत्यनिष्ठा, समाजिकता आदि जैसे तमाम मानवीय गुणों को शिरोधार्य कर आत्मसात करने का मंत्र सिखाया जाता था।
समय बदला, शिक्षा पद्धति बदली। गुरुकुल सहित गुरु-शिष्य परंपरा को विद्यालयी प्रथा ने जैसे समाप्त ही कर दिया। फिर भी पुरातन शिक्षा पद्धति सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के प्रति शिक्षकों की कर्तव्यपरायणता के कारण हम अपने समाजिक मूल्यों को समझने में कामयाब होते थे। परन्तु आज के इस व्यवसायिक दौर में हम शिक्षा को केवल और केवल रोजगार का साधन मात्र समझ कर ही शिक्षा ग्रहण करने को उद्दत हो रहे है। आज हमें बाल्यकाल से ही उतना ही और वैसी ही ज्ञानार्जन की सलाह दी जाती है जो हमें हमारे आर्थिक संवर्धन एवं रोजगार परक जीवन को विकसित करने का साधन बन सके। इसके अतिरिक्त हर वह ज्ञान जो हमारे नैतिक विकास का मार्ग प्रशस्त करें। हमारे लिए सर्वथा व्यर्थ है ऐसा मान कर उस ज्ञान से किनारा कर लेते है।
परिणाम आज हम अपनी संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों से विलग होते जा रहे है। परिवार, परिजन, समाज एवं राष्ट्र के प्रति हमारा कोई उत्तरदायित्व नहीं, ऐसे विचार हमारे मनोमस्तिष्क में घर करते जा रहे है। कभी संयुक्त परिवार में रहकर भी हम सभी एक-दूसरे के सुख – दुख के प्रति सजग रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते थे। परन्तु आज केवल अपने संवर्धन, अपनी उन्नति , अपना विकास किस प्रकार संभव हो दिन-रात बस इतना ही सोचते है। परिणाम संयुक्त परिवार अब एकल परिवार में परिवर्तित हो रहे है, एकल परिवार भी बिखरते देखे जा रहे हैं। क्योंकि उन एकल परिवारों के बिखराव पर अंकुश लगाने, उन्हें बांधे रखने वाले पारिवारिक वरिष्ठ सदस्य साथ हैं ही नहीं। पत्येक इंसान एकांगी जीवन बसर करने को बाध्य दिखने लगा है।
प्राचीन समय में जब गुरुकुल प्रथा हुआ करती थी तब राजपुत्र या फिर निर्धन सभी एक ही वेशभूषा में गुरु आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। जिसके परिणाम स्वरूप नैतिक मूल्यों, नैतिक उदेश्यों एवं मानवता के प्रति उचित ज्ञान प्राप्त कर जन, समाज, प्रदेश एवं देश के उन्नयन के प्रति सजग रहकर जीवनपर्यन्त अपने कर्तव्यों का भलीभाँति निर्वहन करने को प्रयत्नशील रहते थे। जबकि आज का अध्ययन हमें नैतिकता से कोसों दूर अपने केवल अपने हित लाभ की भावना से ग्रसित करता जा रहा है। आज भाई – भाई में प्रेम नहीं, अब यहाँ कटुता, कपट, द्वेष, घृणा का साम्राज्य है, पिता पुत्र का वह पावन पवित्र संबंध भी आज स्वार्थपरता की भेंट चढ़ता जा रहा है। सत्यनिष्ठा कोपभवन की शोभा बढा रही है, सभ्यता, संस्कार, संस्कृति, शिष्टाचार शरशय्या पर लेटे अंतिम सांस ले रहे हैं, कारण अध्ययन अध्यापन से रामायण , गीता, वेद एवं पुराणों का अलग होना।
नि:स्वार्थ रहकर सेवाभाव से किया जाने वाला कार्य आज धन उगाही का सर्वोत्तम सुरक्षित एवं मेवा-मिष्ठान दायी विकल्प बन चूका है।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है जो समय समय पर हर एक क्षेत्र में देखने को मिल जाता है, यहीं परिवर्तन हमें नित्य प्रति दिन शिक्षा के क्षेत्र में भी देखने को मिल रहा है।
पठन-पाठन के क्षेत्र में परिवर्तन हो सकता है किन्तु अध्ययन-अध्यापन का मूल उद्देश्य ही अगर परिवर्तित हो गया तो परिणाम सर्वथा प्रलयकारी ही होगा। शिक्षा का, अध्ययन-अध्यापन का मौलिक उद्देश्य आज भी मानव मात्र को जन हित, लोक हित, परहित के लिए तैयार करना ही होना चाहिए न कि केवल स्वहित के लिए उच्च पद पर आरूढ़ होने की एकमेव लालसा।
हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था, जन-जन की मानसिकता केवल और केवल स्वहित साधना बनती जा रही है तो इसके मूल कारक हमारी आज की शिक्षण व्यवस्था है।
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’