अधूरे सवाल
ज़िंदगी में कुछ सवाल
अधूरे रह जाते हैं ,
जिनका मतलब हम ज़िंदगी भर
खोज ना पाते हैं ,
कुछ रिश्ते ,कुछ मरासिम,
इस कदर पेश आते हैं,
जिनको सोच कर भी
हम समझ ना पाते हैं ,
झूठ के लिबास में हक़ीक़त
छुपी रह जाती है ,
लाख कोशिशों पर भी उजागर
नहीं हो पाती है ,
साज़िशों के भंवर,
इस कदर गहरे होते हैं,
जिनमें फंस कर हम कभी
उबर नहीं पाते हैं,
जो जैसा दिखता है,
उसे हम वैसा नहीं पाते हैं,
तकल्लुफ़ और अख़्लाक के फ़र्क से
हम अनजान रहते हैं,
इंसां की दोहरी ज़िंदगी
सवाल खड़े करती है ,
समझने की कोशिश से
उलझन बढ़ती जाती है,
बातों और एहसासात के पेंच इतने
उलझे हुए होते हैं ,
जिनको सुलझाने की मश़क्कत मे हम और
उलझ कर रह जाते हैं ,
मदद-गार की खुदगर्ज़ी को हम
जान ना पाते हैं ,
फ़रेब-कार दोस्त को हम
पहचान ना पाते हैं ,
फ़ितरत की करवट से हम
बे-ख़बर रहते है ,
अपनो की पहुंचाई चोट से हम
बे-असर रहते हैं ,
औरों की खातिर अपने आप को क़ुर्बान कर,
ख़ुदी को भूल बे-ख़ुद से हो जाते हैं।