अधूरी रात
अधूरी रात
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एक रात,
उतरी थी उंगली
उस बंजर मन के रेगिस्तान में,
जिसमे धधक रही थी
ज्वाला समर्पण की मगर,
छू नहीं पाई थी,
उस पुष्प को जो व्याकुल था,
आतुर खिलने की चाह में
स्पर्श मात्र से,
आज भी वह ‘अधूरी रात’
उसी पल में ज्यों की त्यों
बाट जोहती है,,,,,,!!
!
डी के निवातिया