अधूरी प्रेम कहानी
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यारों आज सुनाता हूँ मैं एक अधूरी प्रेम कहानी
जिस पर भी ठुकती हो तो बताओ निज जुबानी
बहु सुहाने लगते हैं वो जो बीते गए दिन पुराने
याद बड़े आते हैं वो अधूरे बाल्यकाल अफसाने
मै तो देवानंद था वो थी विद्यालयी माला सिन्हा
वो सुंदर छैल छबीली थी,मैं लंबा पतला छबीला
मै त्रेता का विश्वामित्र ,वो हुस्न का भरा प्याला
चाँद चमकता पूनम का,मैं नीला अंबरी ध्रुवतारा
मैं शिव सदन कमांडर,वो लक्ष्मी सदन की बाला
मैं गायक बहुत सुरीला,वो हरियाणवी सुरबाला
बैडमिंटन वो खेला करती ,मैं टेनिस खेलने वाला
वो कक्षा की मोनिटर ,मैं पागल मजनूं मतवाला
वो अच्छी भाषण वक्ता थी,मै़ वाद विवाद संवादी
वो मीठी बहुत सुरीली थी,मैं बिल्कुल अवसरवादी
नजरों के तीर कटीले से खूब सीने पर जा जमते
मंद मंद मधु मुस्कानों के वार दिल में सीधे चुभते
बहाना बना अनापशनाप मैं उससे था बतियाता
दिल की बात दिल में रहती कभी नहीं कह पाता
मैं जो उसको कहना चाहता गले में फँस जाता
नजर बचा सबसे अपनी अक्सर ताकता रहता
मेरी वो पर्यायवाची थी मुझे उसके नाम से जानते
कोपी, किताब, श्यामपट्ट .पर नाम लिखते मिटाते
कभी कभी तो गुरू की पैनी नजरों में फँस जाता
विद्यालय के हर कोने में उसको ही था ढूंढा जाता
कहीं पर भी न मिलने पर कुंठित,हताश हो जाता
किसी से भी तनिक न पूछ पाता मैं थोड़ा शर्माता
छुट्टी की घंटी बज जाया करती मैं वहीँ बैठा रहता
होश मैं जब आता आप पास अकेला निज पाता
होली के घने रंगों मे भर पिचकारी रंग दिया करते
खेल के मैदान में चोर नजरों से उसे ही ढूँढा करते
सच्चे झूठे बहाने बनाकर सानिध्य पल ढूँढा करते
समय भी तेजी से बीता,दिल ही दिल मे रहे जलते
अंतिम विदाई पार्टी में यारो प्रीत अधूरी रह गई थी
नम आँखों से गीली आँखों को हमने दी विदाई थी
मनसीरत ने मन मार मार के तन्हाई थी गले लगाई
अधूरी ,अनसुलझी ,अनकही प्रेम कहानी दफनाई
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)