अधूरा सफर
चले साथ थे मंजिल को
एक तेरे ही भरोसे पर,
मिला नही पर तेरा सहारा
दिया छोड़ बीच राह पर।
सफर दिवस का बिता जब
निपट निशा तब आयी थी,
सहसा मैं भयभीत हुआ
जब घनघोर घटायें छायी थी।
भीषण दमक दामिनी की
पुरवाई जब हुई मदान्ध,
खबर बादलों ने ली मेरी
खुद वो लक्षित थे कामांध।
खुल कर खेली वर्षा रानी
अरमानों की जली थी होली,
सफर अधूरा मंजिल का
गल गयी हाथ के मेरे मौली।
होकर तब निराश निर्मेष
एक वृक्ष की लिए ओट,
आस किया सुखद उषा की
अरमानों का गला घोंट।