अधूरा प्यार
वक्त जाता रहा शामें ढलती रही
रात आती गई ,लेके बातें नई
तुम वहीं के वहीं थे, टिके रह गए
हम अंधेरे के सागर में यूं बह गए
तुमको चाहा बहुत और सराहा बहुत
अपने ही दिल की सुनके निबाहा बहुत
कितने सपने बुने थे तुम्हे सोचकर
तुमने सारे बिखेरे हृदय नोचकर
अब मैं किससे कहूं और क्या क्या कहूं .?
द्वंद भीतर मचा इसको कैसे सहूं
झूठ पर झूठ हर झूठ खलता गया
फिर भी मैं तुममे धीरे ही ढलता गया
भावना थी प्रबल तुमको लेके सुनो
फिर भी मैंने कहा तुम सुलभ ही चुनो
एक समय तुमने मुझको हृदय से छुआ
मैं ना फूला समाया समझकर दुआ
क्या ये छल था विवशता या कुछ और था..?
अब मोहल्ले में भी उठ रहा शोर था
जो हमारा था सबको दिखाना ना था
झूठ का पाठ हमको पढ़ाना न था
गर था कोई और तो हमको बताए बिना
मन को कितना सताई न हमने गिना
ऐसा क्यों कर दिया अब बताओ जरा
सबके सपनों पे अब भी न उतरा खरा
आग मन में लगी वो लगी ही रही
क्या गलत है यहां और क्या है सही.?
अमरेश मिश्र ’सरल’