अधूरा इश्क
अधूरा इश्क
आज भी जलता ज़हन तपती आग में है।
जलते चिराग को हरदम देखते खाब में है।
न भुला सका दिल यादें इश्क के दौर की,
वो हसीं लम्हें कैद दिल-ओ-दिमाग में है।
खाब तो देखे थे हसीन यारो, उसको पाना अधूरा खाब था।
इश्क अधूरा था बेशक मेरा, जितना भी था लाजवाब था।।
हर पल वो दिल को बड़ा धड़काती थी,
उसकी आँखें इश्क करना सिखाती थी।
डूब गया था जब मैं इश्क के दरिया में,
तब वही मुशक्कत करके मुझे बचाती थी।
मरहम उसने भी बखूब लगाया, बेशक गहरा घाव था।
इश्क अधूरा था बेशक मेरा, जितना भी था लाजवाब था।।
इश्क करते हर वक्त मुझे आगाह किया,
न जाने उसने क्यों ऐसा गुनाह किया?
बेवफा उसे कहुँ भी तो कहुँ कैसे?
चंद घड़ी ही सही प्रेम उसने बेपनाह किया।
उसने वफा बखूब निभाई, बेशक दिल्लगी का अभाव था।
इश्क अधूरा था बेशक मेरा, जितना भी था लाजवाब था।।
सावन वो लाई; बहारों को उसने लाया,
प्रेम वारिश से उसने रोम-रोम नहलाया।
की वफा उसने हर पल इश्क में यारो,
पर किस्मत ने कभी गले न लगाया।।
बेवफा तो तू था ‘भारती’, इश्क का दौर भी खराब था।
इश्क अधूरा था बेशक मेरा, जितना भी था लाजवाब था।।
–सुशील भारती, नित्थर, कुल्लू (हि.प्र.)