अधर मौन थे, मौन मुखर था…
अधर मौन थे, मौन मुखर था…
कितना सुखद हसीं अवसर था।
अधर मौन थे, मौन मुखर था।
पूर्ण चंद्र था,
उगा गगन में।
राका प्रमुदित,
मन ही मन में।
टुकुर-टुकुर झिलमिल नैनों से,
धरती को तकता अंबर था।
मन-मानस बिच,
खिलते शतदल।
प्रिय-दरस हित,
आतुर चंचल।
टँके फलक पर चाँद-सितारे,
बिछा चाँदनी का बिस्तर था।
सरल मधुर थीं,
प्रिय की बातें।
मदिर ऊँँघती,
ठिठुरी रातें।
रात्रि का अंतिम प्रहर था,
डूबा रौशनी में शहर था।
प्रेमातुर अति,
चाँद-चाँदनी।
मादक मंथर,
रात कासनी।
और न कोई दूर-दूर तक,
प्रिय, प्रेयसी और शशधर था।
डग भर दोनों,
बढ़ते जाते।
इक दूजे को,
पढ़ते जाते।
मंजिल का ना पता-ठिकाना,
खोया-खोया-सा रहबर था।
अधर मौन थे, मौन मुखर था…
( “मनके मेरे मन के” से )
– © डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)