अधर्म
डॉ अरुण कुमार शास्त्री // एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त*
अधर्म
मानवीय जीवन को संचालित करने वाला बिन्दु जो
उसके कर्मों का निर्धारण निस्तारण करता हो –
उसमें उर्जा को प्रवाहित कर दिशा निर्देशन भी देता हो
वही जब संक्रमित हो जाए तो क्या कहलायेगा –
अधर्म ही न |
निहित कर्म को भूल कर
स्वार्थ कार्य जब होता है
पीडा के अवसादों का तब
परिमार्जन ही होता है
दूरन्देशी जज्बाती इच्छा
क्रूर भावना संग मिल कर
सामाजिक जंजालों को
बुनकर द्रोह रचा करती है
ऐसे ऐसे परिद्र्ष्यों का भी क्युं
अभिवादन ही होता है
भूल गए संस्कार यशस्वी
वेद रिचायें श्लोक सभी
धर्म सम्बन्धित आदर्शों का फिर
मार्ग भूल कर दुष्ट चलन ही होता है
मैने अपना फर्ज़ निभाया
सन्मार्न्गों की, कभी दिशा न त्यागी
खण्ड खण्ड फिर मन मेरा
भी यदा कदा तो होता है
न्याय प्रक्रिया कुण्ठित होकर
अन्यायों से आछादित होगी
नई कौम रे मनवा देखो,
कैसे छुप छुप घुट घुट
कर के रोता है
आज नही तो कल ये होगा
मुझसे सब कुछ लिख कर ले लो
परिवर्तन की हवा चली है
अब परिवर्तन तो होना है
निहित कर्म को भूल कर
स्वार्थ कार्य जब होता है
पीडा के अवसादों का तब
परिमार्जन ही होना है