अधजल गगरी छलकत जाए
अहंकार में आप समाए।
दीवा ज्ञान बहुत इतरावे।
दो के मध्य में तीसरा आवे।
फटे में अपनी टांग अड़ावे।
बिन मांगे ही राय सुझावे।
ना मानो तो मुँह फुलावे।
औरों को नासमझ बतावे।
केवल अपनी हांके जावे।
ना किसी के मन को भावे।
फिर भी अपनी छाप जमावे।
मीठे कुप की जगत बैठकर।
अधजल गगरी छलकत जावे।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’
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