#अद्भुत_संस्मरण
#आस्था_का_दर्पण
■ हनुमंत शक्ति के दो प्रत्यक्ष अनुभव
★ थेरेपी-रूम में दिखी तस्वीर
★ खींचें हुए चित्र हुए ग़ायब
【प्रणय प्रभात】
कलियुग में यदि कोई शक्ति साक्षात और जीवंत है, तो वह है श्री हनुमंत-शक्ति। संभवतः इसी लिए श्री हनुमान जी महाराज को कलिकाल में एकमात्र जीवंत देवता के रूप में मान्य किया जाता है। जिसके प्रमाण उनकी शक्ति, गुण, महिमा, प्रताप, सुकृत्य और पराक्रम सहित कृपा से जुड़े असंख्य प्रसंग हैं। जिन्हें गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बाहुक से लेकर श्री रामचरित मानस तक में सम्पूर्ण आस्था से व्यक्त किया है।
संयोग से कल मृत्यलोक में परम-सदगुरुदेव व ईष्ट के रूप में भक्तों के उद्धारक हनुमान जी महाराज की जयंती है। ऐसे में उनके एक तुच्छ से अनुयायी की लेखनी रहस्य व रोमांच से भरे दो प्रसंगों को सामने लाना चाहती है। जो अपने आप में चकित कर देने वाले हैं। पढ़िएगा और अनुभव कीजिएगा “हनुमंत-कृपा” और “हनुमंत-शक्ति” के बारे में। संभव है कि आपको भी इस तरह के अनुभूत या आभासित प्रसंग स्मृति में आ जाएं।
■ जब कम्पित मन को शांत किया बजरंगी ने…
अंग्रेज़ी कैलेंडर के अनुसार 05 अप्रैल मेरे पिताजी की ज मतिथि है। इसलिए आज का पहला प्रसंग उनके अपने आभास के हवाले से। जो आज उनकी स्मृति व उनके ईष्ट हनुमान जी की कृपा दोनों को श्रद्धापूर्वक समर्पित है। बात 2003 की है, जब पापा “लंग्स-कैंसर” से पीड़ित थे। उनका उपचार जयपुर के एसएमएस (सवाई मानसिंह हॉस्पीटल) में चल रहा था। अपने जीवन-काल में सुई (इंजेक्शन) तक से डरने वाले पापा सामान्यतः आयुर्वेदिक चिकित्सा पर निर्भर थे। इसके अलावा अंग्रेज़ी दवाएं वे निजी अनुभव से ले लिया करते थे। ताकि डॉक्टर के इंजेक्शन से बचा जा सके।
ऐसे में जब उन्हें रेडियो-थैरेपी होने के बारे में पता चला तो उनकी जान सूखने लगी। बेहद आत्मीयता से उनका उपचार कर रहे डॉ. पुनीत शर्मा ने उनकी मनोस्थिति को समझते हुए उन्हें थैरेपी के बारे में समझाया। उन्हें आश्वस्त कराया कि इसमें किसी सिरिंज या उपकरण का प्रयोग नहीं होगा। उन्हें कोई हाथ तक नहीं लगाएगा। डॉक्टर के दिलासे के बाद भी वे रात भर इसी बारे में हमसे कुछ न कुछ पूछते रहे। स्पष्ट था कि तमाम जांचों से वे पहले से अधिक भयभीत थे। सुबह उन्होंने इस शर्त पर थैरेपी कराने को लेकर सहमति दी कि इस दौरान बहू (मेरी धर्मपत्नी) उनके पास रहेगी। जिस पर उन्हें हम सबसे कहीं अधिक भरोसा था। हालांकि तकनीकी रूप से यह संभव नहीं था, पर डॉ. पुनीत ने युक्तिपूर्वक इस मांग को स्वीकार लिया। मंशा उन्हें एक बार थैरेपी-टेबल तक ले जाने और लिटाने भर की थी।
युक्ति सफल रही और श्रीमती जी ने थैरेपी-रूम में ले जाकर उन्हें कोई तक़लीफ़ न होने देने का भरोसा दिलाते हुए मशीन से जुड़ी टेबल पर लिटा दिया। उस समय वे कांप रहे थे और बेहद विचलित थे। बहुत समझाने-बुझाने के बाद उन्होंने श्रीमती जी का हाथ छोड़ा। मौक़ा पाकर श्रीमती जी रूम से बाहर निकल आईं। डर था कि वे टेबल से उठ कर बाहर न आ जाएं, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुछ देर में “रेडिएशन” की प्रक्रिया पूरी हुई। उन्हें वापस स्पेशल वार्ड में ले आया गया, जिसमें वे लोकार्पण के बाद पहले और अकेले रोगी थे। बेड पर लेटने के बाद उन्होंने राहत की सांस लेते हुए हम दोनों को अपना अनुभव सुनाया। उन्होंने बताया कि टेबल पर अकेले छोड़ दिए जाने के बाद वे बहुत घबरा गए। उन्होंने पल भर को आंखें बंद कर हनुमान जी का स्मरण किया। जब लगा कि घटता हुआ रक्तचाप सामान्य हो रहा है और धड़कनें नियंत्रण में आ गई हैं तो उन्होंने आंखें खोल लीं। अचानक उनकी नज़र सामने दीवार पर गईं, जहां हनुमान जी की बड़ी सी तस्वीर लगी हुई थी। उन्हें लगा कि अब वे अकेले नहीं है। वे आराम से तस्वीर को देखते रहे और उनका मन शांत व अविचल बना रहा।
थैरेपी-रूम में हनुमान जी की तस्वीर होने वाली बात ने हमें भी कौतुहल में डाला। तय हुआ कि अगली बार श्रीमती जी भी उस तस्वीर को ज़रूर देखेंगी। दूसरी थैरेपी के लिए पापा को रूम में लेकर गईं श्रीमती जी ने लौट कर मेरे अनुमान को पुष्ट कर दिया। उन्होंने बताया कि पापा ने टेबल पर लेटने से पहले और लेटने के बाद जिस दीवार की ओर मुंह कर प्रणाम किया, वहां कोई तस्वीर थी ही नहीं। यही नहीं, किसी तरह की कोई तस्वीर का उस रूम और गैलरी से लेकर दूर-दूर तक कोई नामो-निशान तक नहीं था। स्पष्ट था कि अपने आराध्य के दर्शन उन्हें भाव-रूप में मिल रहे थे। यहां स्पष्ट कर दूं कि पापा पूजा-पाठी या दिखाया-पसंद बिल्कुल नहीं थे। साल में विशेष तीज-त्योहार के अलावा उनके पास किसी धार्मिक कार्य के लिए समय नहीं होता था। बस ऑफिस जाते समय दो हनुमान मंदिरों पर बाहर से ही प्रणाम कर लेना उनकी आदत में शामिल था। सेवानिवृत्ति के बाद शाम को वे 5-7 मिनट के लिए अपने कमरे का दरवाज़ा ज़रूर बन्द करने लगे थे।
हनुमान जी के मंदिर पर यदा-कदा प्रसाद चढ़ाने के अलावा शायद उन्होंने कोई और उपक्रम कभी नहीं किया। इसके बाद भी उन पर हुई बजरंग बली की कृपा बताती है कि आस्था का आडम्बर से कोई वास्ता नहीं। अब पापा हमारे बीच नहीं हैं, मगर लगता है कि बेनागा कमरा बन्द कर वे शायद हनुमान जी से ही कुछ न कुछ कहते रहे होंगे।।
■ आख़िर कहाँ गईं वो दस तस्वीरें…?
श्री हनुमान जी की शक्ति से जुड़ा दूसरा प्रसंग स्वानुभूत है। जिसका मेरे सिवाय एक और साक्षी है। मेरा सहपाठी राजेन्द्र नागदेव उर्फ़ पपला। जो मेडिकल स्टोर संचालक है। बात 1996 की है, जब मैं मध्यप्रदेश और विदर्भ के सबसे बड़े अख़बार “नवभारत” में कार्यरत था। कुछ ख़ास दोस्तों में एक पपला पर उन दिनों हनुमान-भक्ति का भूत सवार था। वो अपनी बाइक से कुछ किमी दूरी पर स्थित ग्राम-देवरी के हनुमान मंदिर जाता था।
उसकी दुकान और मेरे कार्यालय में चंद क़दमों का फासला था, लिहाजा रोज़ मुलाक़ात होती थी। वो प्रत्येक शनिवार-मंगलवार देवरी जाता और वहां के किस्से सुनाता। एक पत्रकार के रूप में मुझे लगा कि शहर से मामूली दूरी पर स्थित इस मंदिर के बारे में कुछ छापा जाना चाहिए। मित्र का आग्रह भी था, तो बन गया कार्यक्रम। तब आज जैसे साधन-संसाधन नहीं होते थे। काम चलाने के लिए जुगाड़ करना पड़ता था। आज़ाद फोटो स्टूडियो की मदद उन दिनों रोज़ लेनी पड़ती थी, जो पप्पू भाई से दोस्ताना बढ़ने के कारण मिल भी जाती थी।
बहरहाल, एक शनिवार की सुबह पपला भाई के साथ देवरी धाम जाना तय हुआ। पूर्व-निर्धारित योजना के अनुसार आज़ाद फोटो स्टूडियो से “याशिका” का पेकबन्द नया कैमरा शुक्रवार की रात ले लिया गया। जिसमें “कोनिका” की नई रील लोड करा ली गई। अगले दिन बाइक से दोनों देवरी पहुंचे। लगभग निर्जन से स्थल पर बना छोटा सा धाम प्राकृतिक दृष्टि से रमणीय था। अधिकतम 36 चित्र लेने का विकल्प हमारे पास था। हमने क़रीब 20 मिनट तक बाहरी क्षेत्र में 08 तस्वीरें ली। जबकि इससे पहले 04 चित्र हम मार्ग में खींच चुके थे। दो दर्ज़न तस्वीरों की गुंजाइश अब भी बाक़ी थी, जो कैमरे में शो भी हो रही थी। मंदिर में दाख़िल होने के बाद पपला पूजा में जुट गया और मैं अपने काम में।
मैंने अलग-अलग कोण से पूरी 15 तस्वीरे हनुमान जी की लीं। इसके बाद बाक़ी तस्वीरें हमने एक दूसरे की भी ली। मक़सद पूरी रील ख़त्म करना था ताकि उसी दिन धुलाई हो कर प्रिंट मिल जाएं। श्योपुर लौट कर कैमरा रईस भाई को दिया और चित्र शाम 6 बजे तक देने को कहा। ताकि उसी दिन भेजे जाएं और तीसरे दिन सुबह आर्टिकल के साथ प्रकाशित हों। मैंने अति-उत्साह के साथ ऑफिस जाकर बड़ा सा आलेख देवरी धाम पर लिखा। शाम 4 बजे घर से भोजन करते समय रास्ते में आज़ाद फ़ोटो स्टूडियो पर रुका। पता चला कि रईस भाई डार्क-रूम में हैं और बाहर आने ही वाले हैं। सोच चयनित फोटो बनवाने की थी, सो कुछ देर इंतज़ार किया।
धुली हुई रील को सुखाने के लिए बाहर लाए रईस भाई ने एक नज़र रील पर डाली और वो कहा जो अवाक कर देने वाला था। उन्होंने बताया कि हनुमान जी की मूर्ति का एक भी फोटो नहीं आया है। हमने देखा तो पाया कि रील 13 से 27 नम्बर तक पूरी ब्लेक थी। जबकि बाक़ी सारे फोटो शानदार क्लिक हुए थे। ऐसा आख़िर कैसे हुआ, पता नहीं। आज लगता है कि श्री हनुमान जी को एक भक्त का मात्र पत्रकार बन कर दरबार में आना नहीं भाया और अपनी छवियों को ग़ायब कर दिया। वरना ऐसा कदापि संभव नहीं था कि 15 में से एक भी चित्र कैमरे में क़ैद न हो और आगे-पीछे के सभी 21 चित्र अपनी जगह मौजूद बने रहें।
आज भी लगता है कि वाक़ई उस दिन अति-उत्साह में गुस्ताख़ी तो हुई ही थी। चाह कर नहीं, अंजाने में अनचाहे ही सही। यही नहीं, आप ताज्जुब कर सकते हैं कि बीते 27 साल में दुबारा देवरी-धाम जाने का सौभाग्य भी मुझे नहीं मिला। शायद आगे के कभी मिले, बालाजी महाराज की कृपा से। जय हो प्रभु जी!!
■प्रणय प्रभात■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)