अथ माला महात्म्य
अथ माला महात्म्य
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आजकल प्रत्येक कार्यक्रम में माला की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कार्यक्रम का शुभारंभ भी सरस्वती जी को माला पहनाए बगैर नहीं होता। मंच पर बैठने वालों के गले में भी जब तक माला सुशोभित न हो तब तक कार्यक्रम की शुरुआत नहीं होती। यहाँ माला पहनने वाला ही नहीं माला पहनाने वाला भी खुद को कुछ विशेष समझने लगता है या यों कह लीजिए कि संतोष कर लेता है कि चलो पहनने वालों में नही तो पहनाने वालों में ही सही, नाम तो आया। माला पहनाकर वह फोटू अवश्य खिंचवाता है ताकि सनद रहे।
जिन्हें माला पहनने पहनाने का सौभाग्य नहीं मिलता वह ऐसे ही नाराज नाराज से बैठे रहते हैं जैसे शादी वाले घर में फूफा रहता है। उनकी पैनी दृष्टि कार्यक्रम के संचालन व अन्य व्यवस्थाओं का छिद्रान्वेषण करने में लगी रहती है और संयोग से कुछ कमी रह गई तो उनकी आत्मा को परम संतोष की अनुभूति होती है। आखिर कार्यक्रम की निंदा का कुछ मसाला तो मिला।
कभी कभी माला पहनने वाले इतने अधिक हो जाते हैं कि कार्यक्रम के संचालक भी सभी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते, और असमंजस रहता है कि कहीं रामलाल की माला श्याम लाल के गले न पड़ जाये, असमंजस माला पहनाने वाले के चयन को लेकर भी रहता है कि कहीं माला पहनाने वाले और पहनने वाले में छत्तीस का आंकड़ा न हो, और यज्ञ की अग्नि में घी की आहुति पड़ जाए।
एक कार्यक्रम में ऐसी ही परिस्थिति से निपटने का संचालक महोदय ने बड़ा नायाब तरीका निकाला। उन्होंने कहा माला पहनने वालों को ढूँढने में देर हो रही है इसलिये सबके नाम की मालाएं अध्यक्ष महोदय को पहना दी जायें और सभी माला पहनने वाले समझ लें कि उन्हें माला पहना दी गई। भला ये भी कोई व्यवस्था हुई, हमारे नाम का माल्यार्पण भी हो गया, लेकिन जो दिखा ही नहीं वह कैसा माल्यार्पण।
आजकल एक परंपरा और चल पड़ी है। मंच पर काव्यपाठ करने वाले कवि जी की वाह वाह करने के साथ साथ बार बार आकर माला पहनाने वालों की होड़ लगी रहती है। अब इतनी सारी मालाएं तो कोई मँगवाता नहीं है, अत: कविगणों की पहनी हुई मालाएं, जो परंपरानुसार कविगण गले से उतारकर सामने रख देते हैं, वही उठाकर काव्यपाठ करनेवाले कवि को पहना दी जाती है, वह भी बेचारा उस उतरी हुई माला को मजबूरी में पहन लेता है, और फिर उतारकर माइक पर लटका देता है, लेकिन माला भी इतनी ढीठ होती है कि थोड़ी देर बाद फिर गले पड़ जाती है। ऐसी मालाओं का कोई चरित्र नहीं होता। ये प्रत्येक माइक पर आनेवाले के गले पड़ जाती हैं।
इनके पास अपनी मूल गंध भी नहीं रहती हैं। विभिन्न गलों में पड़ते उतरते इनमें विभिन्न प्रकार के हेयर आयल, परफ्यूम, पान मसालों की गंध आने लगती है और जैसे जैसे कवि सम्मेलन आगे बढ़ता है, इनमें दारू से लेकर मुख से टपकी लार की भी गंध आने लगती है, कभी कभी माइक के स्टैंड पर लगा मोबिल आयल भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।
मुझे स्वयं ऐसी मालाओं से कई बार जूझना पड़ा है, जो जबरन गले पड़ती हैं। भला इनका भी कोई चरित्र है। लेकिन भाईसाहब ये सार्वजनिक रूप से गले पड़ती हैं, इनके साथ पहनाने वाले की आन बान और शान जुड़ी होती है, इसलिये इन्हें मजबूरी में पहनना भी पड़ता है। इन्हीं से कवि का स्टैंडर्ड भी पता चलता है। जितनी अधिक मालाएं गले में पड़ती हैं, उतना ही बड़ा कवि माना जाता है। कवि को भी यह भ्रांति रहती है कि संभवत: मालाओं की संख्या के अनुसार लिफाफे का आकार भी बढ़ जाये।
माला से जुड़ा हुआ ही एक और रोचक प्रसंग याद आ गया।
एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के संयोजन में एक कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था।
उक्त कवि सम्मेलन के दौरान जब कविगण काव्यपाठ कर रहे थे तब एक सज्जन जो शायद आयोजन की व्यवस्था की निगरानी से जुड़े थे, माला लेकर धीरे धीरे सकुचाते मुस्कुराते हुए आते, और काव्य पाठ करते हुए कवि को माला पहनाकर चले जाते थे।
इसी क्रम में जब एक कवियित्री काव्यपाठ कर रही थीं, तब भी वह माला लेकर मुस्कुराते हुए मंथर गति से आये और जब तक कवियित्री हाथ बढ़ाकर माला लेतीं, उन्होंनें माला उनके गले में डाल दी। कवियित्री जी भी थोड़ी असहज हुईं। इस अप्रत्याशित स्थिति को मंच से अध्यक्ष महोदय ने ये कहकर सम्हाला कि इन्हें शायद पता नहीं है कि महिलाओं को माला पहनायी नहीं जाती है बल्कि हाथ में सौंप दी जाती है। आनंद तो तब आया जब उस के बाद स्वयं अध्यक्ष महोदय काव्यपाठ के लिये आये, जब वह काव्यपाठ कर रहे थे, तब वह फिर धीरे धीरे मुस्कुराते हुए आये और अध्यक्ष महोदय को माला पहनाने की बजाय उनके हाथ में थमाकर चले गये।
यह देखकर दर्शकों में हँसी का फव्वारा छूट गया। वस्तुत: इतना हास्य तो हास्य कवियों की प्रस्तुति पर भी नहीं उपजा, जितना इस प्रकरण से उपजा।
वास्तव में माला आज के युग में प्रत्येक आयोजन की मूलभूत आवश्यकता बन गई है। इसलिये भूलकर भी माला की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रही बात हमारी तो हमें तो आज तक एक ही माला अच्छी लगी, जो शादी के समय हमारी श्रीमती जी ने पहनायी थी और जो आज तक उन्होंने संदूक में संभालकर रखी हुई है।
श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG – 69,
रामगंगा विहार, मुरादाबाद।
26.03.2021