अथ ज्ञान सागर
सोरठा- सत्य नाम है सार,बूझो संत विवेक करी।
उतरो भव जल पार, सतगुरू को उपदेश यह ।।
सतगुरू दीनदयाल, सुमिरो मन चित एक करि
छेड़ सके नहीं काल,अगम शब्द प्रमाण इमि ।।
बंदौ गुरू पद कंज, बन्दीछोड़ दयाल प्रभु ।
तुम चरणन मन रज, देत दान जो मुक्ति फल ।।
चौपाई:-मुक्ति भेद मैं कहौ विचारी। ता कहँ नहिं जानत संसारी ।।
बहु आनन्द होत तिहिं ठाऊँ। संशय रहित अमरपुर गाऊं।।
तहँवा रोग सोग नहिं हाई। क्रीडा विनोद करे सब कोई ।।
चन्द्र सूर दिवस नहिं राती । वरण भेद नहिं जाति अजाति ।।
तहँवा जन्म मरण नहिं होई।बहु आनन्द करें सब कोई ।।
पुष्प विमान सदा उजियारा । अमृत भोजन करत अहारा ।।
काया सुंदर ताहि प्रमाना।उदित भये जनु षोडस भाना ।।
इतनो एक हंस उजियारा शोभित चिकुर तहां जनु तारा।।
विमल बास तहँवां बिगसाई।योजन चार लौं बास उड़ाई।।
सदा मनोहर क्षत्र सिर छाजा।बूझ न परे रंक औ राजा।।
नहिं तहां काल वचन की खानी। अमृत वचन बोल भल बानी।।
आलस निद्रा नहीं प्रकासा।बहुत प्रेम सुख करैं विलासा ।।
साखी:-अस सुख है हमारे घरे, कहै कबीर समुझाय।
सत्त शब्द को जानिके,असथिर बैठे जाय ।।
कबीर साहेब कहते हैं कि सच्चे नाम और सच्चे गुरू बिना मुक्ति रूपी फल (परिणाम ) को प्राप्त नहीं किया जा सकता । साहेब कहते है कि मैं तुम्हें मुक्ति का भेद बताता हूं जिसे संसार में रमे लोग नहीं जानते । हमारा जो अमर स्थान है वहां रोग, सोग नहीं है वहां सभी आनन्द से हर्ष के साथ रहते हैं। जहां सूर्य ,चन्द्र, दिन,रात नहीं है अर्थात सदैव वह स्थान प्रकाशमान रहता है । जहां वरण भेद (ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य, शुद्र) का भेद नहीं है और नाहीं जाति अजाति (उच्च-नीच )का भेद है। जहां जन्म मृत्यु नहीं है वहां सभी निर्भय होकर आनन्द से रहते हैं। सुंदर शरीर प्राप्त आत्माओं का प्रकाश सोलह सूर्य के प्रकाश (एक आत्मा) के समान है । सुंदर बाल तारों के समान चमकते रहते हैं।जहां हमेशा सुवासित वायु के ख़ुशबू चार योजन तक आती रहती है ।जहां सभी आत्माओं के सिर पर क्षत्र विराजमान रहता है जिससे राजा और रंक (गरीब) में भेद नहीं किया जा सकता। जहां मृत्यु का भय नहीं सभी मृदु मधुर वाणी में सम्भाषण करते हैं ।
साहेब कबीर कहते हैं कि ऐसा सुख हमारे घर है उस स्थान को सच्चे शब्द (मंत्र)को जानकर भक्ति करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
धर्मदास से कबीर साहेब कहते है कि हृदय से एक नाम को खोजो जिससे इस भवसागर से पार उतरा जा सकता है काल बड़ा बांका वीर है जो बिना सच्चे नाम के किसी को नहीं छोड़ता ,सच्चे नाम से ही काल के फंदे को काटा जा सकता है।देवता और मनुष्य बिना सच्चे नाम के मर जाते है जैसे बिना जल के मछली । सभी पाखड़ व्यवहार में तीरथ, व्रत,और नियम आचरण में सच्चे नाम को भूल गये हैं । सगुण भक्ति योग की युक्ति द्वारा बिना सच्चे नाम के मुक्ति नहीं ।
साहेब कहते है कि:-
साखी:-गुण तीनों की भक्ति में, भूल परयो संसार।
कह कबीर निज नाम बिना,कैसे उतरै पार।।
धर्मदास कहते हैं कि
निरंकार निरंजन नाऊँ।जोत स्वरूप सुमरत सब ठाऊँ ।।
गावहि विद्या वेद अनूपा।जग रचना कियो ज्योति सरूपा।।
भक्त वत्सल निजनाम कहाई । जिन यह रचि सृष्टि दुनियांई ।।
सोई पुरूष कि आहि निनारा। सी मोहि स्वामी कहौ व्यवहारा ।।
साखी:-जो कुछ मुझे सन्देह है, सो मोहि कहो समुझाय।
निश्चय कर गुरू मानिहौ,औ बन्दों तुम पांय ।।
धर्मदास कहते हैं कि निरंकार निरंजन जिसका नाम है ज्योति स्वरूप जिसका सब जगह स्मरण किया जाता है वेद जिसकी महिमा गायन करते हैं,जो भक्त वत्सल नाम से प्रसिद्ध है, जिसने यह दुनियां बनाई वही पुरूष या अन्य परमात्मा है मुझे बताइये जिससे जीव का कल्याण हो मैं कुल लाज को छोड़कर वही करूंगा । आप मेरे इस संशय,सन्देह को मिटा दीजिए तो निश्चय मैं आपको गुरू मानूँगा और आपके चरणों की वंदना करूंगा।।
कबीर वचन :-ज्योति नहीं वह पुरूष नहीं नारी
तीन लोक से भिन्न पसारा।जगमग जोत जहां उजियारा।।
सदा वसंत होत तिहि ठाऊँ।संशय रहित अमरपुर गाऊं ।
तहँवा जाय अटल सो होई ।धरमराय आवत फिरि रोई ।।
वरनॉन लोक सुनो सत भाऊ । जाहि लोक तेन हम चलि आऊ।।
साहेब कबीर कहते हैं :-जिस लोक से हम आये हैं वहाँ हमेशा वसंत विद्यमान रहता है यानि सर्वदा एक जैसा मौसम (सुहावना )रहता है ,उस लोक का मैं वर्णन करता हूं तुम सच्चे भाव से सुनो:-
सोरठा:-शोभा अगम अपार, वर्णत बनै न एक मुख।
कही न जात विस्तार, जो मुख होवै पदम् सत ।।
क्रमश: