अत्याचारी दौर
निकल अकेली ना घर से बेटी,
साया बाहर शैतानों का।
जहाँ फूल झड़ते बातों में
डेरा वहीं हैवानों का।।
आज दरिंदे औरंगजेब से
बदतर सोचें रखते हैं ।
अपनी हवस बुझाने खातिर,
कुटिल इरादे रखते हैं।।
कुत्ते गली-गली घूमते
शेरानी नकाबों में।
भेड़ियों की तादात बढ़ रही,
जंगल राज हुक्मरानों में।।
आँधी अत्याचार कहाँ
अकेले सह पाएगी ।
नोंच दरिंदे खा जाएँगे
चीख तलक न पाएगी।।
धधक-धधक जब जली चिता तो,
मेरा दिल भी धधक उठा।
बेटी मनीषा आदित्य राज में,
सारा यू पी दहक उठा।
बात मात्र न दलिताई की
बेटी सबकी आन है ।
आज हमारी व्यथित हुई
क्या कल किसकी पहचान है।
महज लूट हर तरफ मची
हर दिशा हुई लाचार है।
रक्षक भक्षक बने हुए हैं,
‘मयंक’ तुम्हें धिक्कार है।