‘ अतृप्ति ‘
पीय तुमको तो मयुर बन
अपने प्रेम का पंख फैला
बरखा में मदमस्त हो
मेरे आस – पास ही बसना था ,
तुम तो मुझे चातक बना कर
खुद बरखा बन गये
क्या ऐसे प्रेम का इतिहास
हमें मिल कर रचना था ?
तुम साधारण बरखा बनते
अपने प्रेम से मेरा रोम – रोम भिगोते
लेकिन मुझे तो तुम्हारे इंतज़ार में
यूँ हीं सूखी की सूखी ही रहना था ,
जब सब जोड़ों को देखती हूँ
एक आह सी निकलती है
झरझर आँसू बहते हैं
क्या मुझे ऐसे ही भीगना था ?
मैं यहाँ हर – पल राह तकती
प्यासी बैठी चिर काल से
अब आओगे तब आओगे
बताओ और कितनी राह तकना था ?
सब बरखा की बूंदों से तृप्त हो
उल्लासित हो झूम रहे
मैं बिरहन अकेली बैठी
तुम्हें स्वाति नक्षत्र की बूंद ही बनना था ?
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )