अतीत का पाखंड आज की परंपरा
अंधाधुंध की कमाई
मन में रही न समाई
साख मिली सजी सजाई
एकदिन होनी है राख
तनिक बात समझ न आई
कैसे बँट गई ये कोख
परिधान पुराने शोख
श्मशानघाट की राख
दरयाफ़्त करती देख
पंछी बैठे न एक शाख
राख तो राख है निष्प्राण
इसमें भी बसती साख
बेशक हो गई देह की राख
तू दस्तकार है हाथ का
मैंने तो बुद्धि से की कमाई
तू सेवक था मै ब्रह्म का ज्ञाता
कैसे लेटा आकर पास
तू गँगू तेली मैं भोज राजा
पास न आ, जा दूर सो जा
किसे मुक्तेश्वर भेजते
ये तो श्मशान में भी लड़ते
पिण्ड भरे कैसे उनके
सजदे नहीं जिनसे उनके अपने
कोई धाम नहीं जहां मे ऐसे
*निर्जीव *सजीव में भेद कर दे
*पत्थर(भगवान) *स्वयं-सत्ता
#जीवन_एक_अभिव्यक्ति
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस