अजीब दौर का सच
अजीब दौर का सच
अजीब दौर है, अजीब बातें,सपनों की दुनिया, नई सौगातें।
लड़कियां कहती हैं, हम सक्षम हैं,शिक्षा, काबिलियत से भरी हुईं समर्पण हैं।।
दहेज का विरोध करतीं, खुद को साबित करतीं,कहती हैं, बराबरी की राह पर चलतीं।
शिक्षा का दीप जलाकर जगमगातीं,सशक्त और स्वतंत्र होने का दावा जतातीं।।
पर जब तलाक का प्रश्न सामने आता,वो सक्षम स्त्री कहीं खो जाती।
लाखों-करोड़ों की अलमनी मांगतीं,क्योंकि अकेले खर्चे नहीं संभाल पातीं।।
क्या हुआ उस सक्षमता का, उस आत्मविश्वास का,जो दहेज के खिलाफ आवाज उठाता था?
क्या शिक्षा और काबिलियत केवल नाम है,या समाज के दोहरे चेहरे का परिणाम है।।
शिक्षित समाज का ये कैसा खेल,जहां स्वतंत्रता भी दिखावे का मेल।
कभी अधिकारों की बात, कभी सहानुभूति का स्वांग,कभी बराबरी की पुकार, तो कभी कमजोर का रंग।।
समाज को चाहिए एक नई दिशा,जहां सच्चे मूल्य हों, न केवल भाषा।
सक्षम वही, जो सक्षमता को निभाए,शिक्षा और सम्मान का अर्थ समझाए।।
सच्ची समानता तभी आएगी,जब हर व्यक्ति खुद को समझ पाएगी।
दहेज और अलमनी के बीच का यह छल,सिर्फ भ्रम है, सच्चाई से दूर का पल।।
समाज को बदलने की अब जरूरत है,हर चेहरे को सच्चाई की जरुरत है।
शिक्षित समाज को नया रूप देना होगा,हर दावे को सही अर्थ में जीना होगा।।