अज़ीब था
फूलों से चोट खाता था पत्थर अजीब था
कहते थे जिसको ज़ालिम रहबर अजीब था
ज़ख्मों के हर हिसाब पू्छता है कौन फिर
ग़ैरों को अपना कर गया खंज़र अजीब था
सजदे की तरह नज़रे उठाकरके झुक गया
टूटा जो आईने सा वो मंज़र अजीब था
दहशत दिलो दिमाग़ में भर के खुशी दिया
वो फौज़ थी अज़ीब वो क़ैसर अजीब था
भटका हुआ था बनके मसीहा ‘महज़’ मेरा
उसका नज़रिया ख़ास और तेवर अजीब था