अजनबी
“मुद्दतो से दबे थे राज जो दिल में
उन्हें बहकने से कैसे रोक पाता
बड़ी हसरते थी उस खुद्दार दिल की
उन्हें बंदिशों में कैसे रख पाता,
वफ़ा का नाम लेके लूटा जिसने मुझे
उस बेवफा को बदनसीब कैसे मान लेता
मेरे मुकद्दर में लिखे हर उस शख्स को
मै अजनबी कैसे मान लेता ,
रखा हासिये पर जीवनभर कभी
जो अरमानों के तराजू में तौलकर
किया साबित गुनहगार उसने मुझे
खुद वफ़ा से नाता अपना तोड़कर ||