“अजनबी बन कर”
सुनो मिलते हैं फ़िर से एक अजनबी बन कर, मैं तुम्हारा हाल पूछूँगा और तुम मेरा नाम,
बैठेंगें फ़िर से उन पहाड़ों में देखेंगे ढलते सूरज में खुद के रिश्ते डूबते हुए,
तुम मेरी डायरी खोल पढ़ लेना मेरी लिखी हुई कविताएं जिसमें जिक्र है बस तुम्हारा,
सुनो तुम मुझे देख एक बार फ़िर से मुस्कुरा देना,
और मैं धीरे-धीरे ये गीत गुन-गुना दूँगा- बड़े अच्छे लगते है ये धरती ये नदियाँ ये रैना और तुम….!
“लोहित टम्टा”