अछूत
जिस समाज में वो जन्मी थी , वो बहुत समय से मनुष्य की विष्टा उठाने का काम करता रहा था पर जैसा उसके घर के बुजुर्ग बताते थे , एक बहुत लम्बी कहानी थी । आज तक उसको यही बताया गया था कि उसके परिवार के दादा , पितामह यहाँ तक कि पिता और माँ भी यहीं काम करते आये थे । उन्हीं की पीढ़ी में होने के कारण वह जाति से शूद्र थी। नाम सोना था ।
प्राय : रोज सुबह उठ अपने ताम -झाम के साथ वह माँ से यह कहती हुई चली जाती , ” माँ, मैं अभी पिछवाड़े की कालोनी का काम सिलटा के आती हूँ ।” इतना कहकर चली जाती । प्रत्युत्तर में माँ कहती , जा बेटी , अच्छे से जाना , कहीं फालतू रूकना
मत ।
पिछवाड़े की कालोनी में जा कर झाडू लगाती एवं मैला साफ करती । पास में ही एक परिवार रहता जिसकी मालकिन काफी सम्भ्रान्त थी अपने चबूतरे पर बैठ जाने देती और खाने पानी की पूछती तो सोना कभी खा लेती तो कभी रखकर घर ले जाती ।
पर समय एक जैसा नहीं रहता , समय बदलने के साथ – साथ सोच में परिवर्तन हुआ । तकनीकी के युग में अब विष्टा उठाने जैसा काम नहीं होता है । शौचालय भी आधुनिक टेक्नीक लैस होने लगे है ऐसे में अपने परम्परागत कार्य को छोड़ देना स्वभाविक ही था और लोगों को देख उसने भी पास के विधालय में दाखिला ले लिया सब छात्राओं के साथ बैठकर पढ़ने से कभी उसे आभास नहीं होता था कि वह किस जाति की है । उसको बड़ा अपनापन सा लगता था टीचर्स और छात्राओं के मध्य। क्क्षा ऐसा समुदाय था जहाँ ऊँच -नीच का भेद न था सभी समान था जिस जमीं पर सब बैठते उसी पर वो । लेकिन वो यहाँ शूद्र न थी क्योकि जाति – पाँति का कोई भेद न था , शाम को जब पढ कर लौट जाती माँ के साथ हाथ बंटाती ।
कुछ समय बाद गाँव की डिस्पेन्सरी में एक डॉ साहब ट्रान्सवर होकर आये । अभी – अभी शहर से आने के कारण गाँव के तौर – तरीकों एवं लोगों से अनजान थे । जो गाँव में ही रूम लेकर रहने लगा । वो जहाँ रहता था वहाँ से सोना का मकान स्पष्ट दीखता था । एक रोज जब वह बीमार हो गई तो माँ के साथ डॉ बाबू के क्लीनिक पहुँच गई । बीमारी को बता और दिखा दवा ले गयी ।
लेकिन डॉ बाबू जो अभी तक कुँआरे थे सोना के सोनवर्ण रूप पर ऐसी आसक्ति हो गई कि रोज सुबह उठकर डॉ बाबू घूमने जाने लगे। घूमने का मार्ग भी डॉ बाबू के घर से ले सोना तक के घर तक जाता था । जैसे जैसे समय बीतता गया डॉ बाबू गाँव के तौर – तरीकों से परिचित हो गये । डॉ बाबू के मन में एक अन्तर्द्वन्द चल रहा था , धीरे आस – पास के लोगों से पता लगा कि डॉ बाबू की चाह का केन्द्र बिन्दु जो लड़की है वह जाति से शूद्र है । यह पता चलने पर डॉ बाबू ने मन पर रोक का अंकुश लगाना चाह ।
पर प्रेम किसी भी जाति – बंधन में कैद नहीं होता । वह ऊँच – नीच , जाति – पाँति से हट कर दिल की भाषा जानता है । बहुत कोशिश के बाबजूद जब डॉ बाबू अपने पर नियन्त्रण न कर पायें तो अपने प्रेम का इजहार सोना से कर बैठे । लेकिन सोना की माँ को यह स्वीकार न था कि उसकी बेटी डॉ बाबू से प्रेम करे । न ही गाँव वालों को और न सोना के परिवार को यह स्वीकार था । डॉ बाबू से सोना को दूर रखे जाने की बिरादरी वालों ने बडी कोशिश की पर सोना की बेकाबू जवानी अपने पर नियन्त्रण नहीं कर पायी । अन्ततः दोनों ने मंदिर में शादी कर ली । जब यह बात पंचायत तक पहुँची तो पंच इस मुद्दे पर एकमत नहीं हो पायें । परिणामस्वरूप दोनों को गाँव से निकाला दे दिया और सोना की माँ का हुक्का पानी बंद कर दिया गया ।
गाँव से अपना सामान बटोर डॉ बाबू शहर में आ बस गये
यहाँ पर अपनी प्रेक्टिस शुरू कर दी यहाँ सोना भी साथ पत्नी की तरह रहने लगी । आजाद ख्याल वाले डॉ बाबू पर इस घटना का इतना असर न था जितना कि सोना कि माँ पर। गाँव से जब भी कोई आता था इलाज के लिए तो वो सोना और उसकी माँ के घाव को हरा कर जाता जैसे विवाह कर कोन सा डॉ बाबू ने अपराध कर दिया हो ।
जब रोज -रोज की सुनकर डॉ बाबू तंग आ गये तो सोना की माँ को अपने पास बुलवा लिया । सोना की माँ भी साथ रहने लगी । घर पर माँ बेटी रहते डॉ बाबू का सारा समय क्लीनिक पर ही जाता । धीरे – धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा था ।सोना भी गर्भवती हो गई और उसने एक पुत्र को जन्म दिया धीरे -धीरे वो बड़ा हुआ तो नाम तो उसे डॉ बाबू का मिला था डॉ बाबू ने कोशिश की कि सोना की जाति बिरादरी की कोई भी परछाई बालक पुरु को न छुए इसलिये उसे दूर आवासीय विद्यालय में भेज दिया ।
अब जब उसका बेटा बड़ा हो गया तो कोई उसे अछूत के नाम से नही जानता था ।सोना डॉ की पत्नी और बेटा पुरु डॉ का बेटा था । वक्त बीतने के साथ – साथ एक विशेष जाति का भास कराने वाली भावना समाप्त हो गई थी और सोना का दायरा उसकी जाति विशेष तक सीमित न होकर उच्च जाति को छूने लगा था ।
एक बार फिर सोना और माँ को लगता था कि समाज में जाँति – पाँति की खाई मिट गई और सब एक छत के नीचे आ गए है ।