Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
1 Jul 2021 · 4 min read

अछूत

जिस समाज में वो जन्मी थी , वो बहुत समय से मनुष्य की विष्टा उठाने का काम करता रहा था पर जैसा उसके घर के बुजुर्ग बताते थे , एक बहुत लम्बी कहानी थी । आज तक उसको यही बताया गया था कि उसके परिवार के दादा , पितामह यहाँ तक कि पिता और माँ भी यहीं काम करते आये थे । उन्हीं की पीढ़ी में होने के कारण वह जाति से शूद्र थी। नाम सोना था ।
प्राय : रोज सुबह उठ अपने ताम -झाम के साथ वह माँ से यह कहती हुई चली जाती , ” माँ, मैं अभी पिछवाड़े की कालोनी का काम सिलटा के आती हूँ ।” इतना कहकर चली जाती । प्रत्युत्तर में माँ कहती , जा बेटी , अच्छे से जाना , कहीं फालतू रूकना
मत ।

पिछवाड़े की कालोनी में जा कर झाडू लगाती एवं मैला साफ करती । पास में ही एक परिवार रहता जिसकी मालकिन काफी सम्भ्रान्त थी अपने चबूतरे पर बैठ जाने देती और खाने पानी की पूछती तो सोना कभी खा लेती तो कभी रखकर घर ले जाती ।
पर समय एक जैसा नहीं रहता , समय बदलने के साथ – साथ सोच में परिवर्तन हुआ । तकनीकी के युग में अब विष्टा उठाने जैसा काम नहीं होता है । शौचालय भी आधुनिक टेक्नीक लैस होने लगे है ऐसे में अपने परम्परागत कार्य को छोड़ देना स्वभाविक ही था और लोगों को देख उसने भी पास के विधालय में दाखिला ले लिया सब छात्राओं के साथ बैठकर पढ़ने से कभी उसे आभास नहीं होता था कि वह किस जाति की है । उसको बड़ा अपनापन सा लगता था टीचर्स और छात्राओं के मध्य। क्क्षा ऐसा समुदाय था जहाँ ऊँच -नीच का भेद न था सभी समान था जिस जमीं पर सब बैठते उसी पर वो । लेकिन वो यहाँ शूद्र न थी क्योकि जाति – पाँति का कोई भेद न था , शाम को जब पढ कर लौट जाती माँ के साथ हाथ बंटाती ।
कुछ समय बाद गाँव की डिस्पेन्सरी में एक डॉ साहब ट्रान्सवर होकर आये । अभी – अभी शहर से आने के कारण गाँव के तौर – तरीकों एवं लोगों से अनजान थे । जो गाँव में ही रूम लेकर रहने लगा । वो जहाँ रहता था वहाँ से सोना का मकान स्पष्ट दीखता था । एक रोज जब वह बीमार हो गई तो माँ के साथ डॉ बाबू के क्लीनिक पहुँच गई । बीमारी को बता और दिखा दवा ले गयी ।
लेकिन डॉ बाबू जो अभी तक कुँआरे थे सोना के सोनवर्ण रूप पर ऐसी आसक्ति हो गई कि रोज सुबह उठकर डॉ बाबू घूमने जाने लगे। घूमने का मार्ग भी डॉ बाबू के घर से ले सोना तक के घर तक जाता था । जैसे जैसे समय बीतता गया डॉ बाबू गाँव के तौर – तरीकों से परिचित हो गये । डॉ बाबू के मन में एक अन्तर्द्वन्द चल रहा था , धीरे आस – पास के लोगों से पता लगा कि डॉ बाबू की चाह का केन्द्र बिन्दु जो लड़की है वह जाति से शूद्र है । यह पता चलने पर डॉ बाबू ने मन पर रोक का अंकुश लगाना चाह ।
पर प्रेम किसी भी जाति – बंधन में कैद नहीं होता । वह ऊँच – नीच , जाति – पाँति से हट कर दिल की भाषा जानता है । बहुत कोशिश के बाबजूद जब डॉ बाबू अपने पर नियन्त्रण न कर पायें तो अपने प्रेम का इजहार सोना से कर बैठे । लेकिन सोना की माँ को यह स्वीकार न था कि उसकी बेटी डॉ बाबू से प्रेम करे । न ही गाँव वालों को और न सोना के परिवार को यह स्वीकार था । डॉ बाबू से सोना को दूर रखे जाने की बिरादरी वालों ने बडी कोशिश की पर सोना की बेकाबू जवानी अपने पर नियन्त्रण नहीं कर पायी । अन्ततः दोनों ने मंदिर में शादी कर ली । जब यह बात पंचायत तक पहुँची तो पंच इस मुद्दे पर एकमत नहीं हो पायें । परिणामस्वरूप दोनों को गाँव से निकाला दे दिया और सोना की माँ का हुक्का पानी बंद कर दिया गया ।

गाँव से अपना सामान बटोर डॉ बाबू शहर में आ बस गये
यहाँ पर अपनी प्रेक्टिस शुरू कर दी यहाँ सोना भी साथ पत्नी की तरह रहने लगी । आजाद ख्याल वाले डॉ बाबू पर इस घटना का इतना असर न था जितना कि सोना कि माँ पर। गाँव से जब भी कोई आता था इलाज के लिए तो वो सोना और उसकी माँ के घाव को हरा कर जाता जैसे विवाह कर कोन सा डॉ बाबू ने अपराध कर दिया हो ।
जब रोज -रोज की सुनकर डॉ बाबू तंग आ गये तो सोना की माँ को अपने पास बुलवा लिया । सोना की माँ भी साथ रहने लगी । घर पर माँ बेटी रहते डॉ बाबू का सारा समय क्लीनिक पर ही जाता । धीरे – धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा था ।सोना भी गर्भवती हो गई और उसने एक पुत्र को जन्म दिया धीरे -धीरे वो बड़ा हुआ तो नाम तो उसे डॉ बाबू का मिला था डॉ बाबू ने कोशिश की कि सोना की जाति बिरादरी की कोई भी परछाई बालक पुरु को न छुए इसलिये उसे दूर आवासीय विद्यालय में भेज दिया ।
अब जब उसका बेटा बड़ा हो गया तो कोई उसे अछूत के नाम से नही जानता था ।सोना डॉ की पत्नी और बेटा पुरु डॉ का बेटा था । वक्त बीतने के साथ – साथ एक विशेष जाति का भास कराने वाली भावना समाप्त हो गई थी और सोना का दायरा उसकी जाति विशेष तक सीमित न होकर उच्च जाति को छूने लगा था ।
एक बार फिर सोना और माँ को लगता था कि समाज में जाँति – पाँति की खाई मिट गई और सब एक छत के नीचे आ गए है ।

77 Likes · 4 Comments · 520 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from DR.MDHU TRIVEDI
View all
You may also like:
नेता अफ़सर बाबुओं,
नेता अफ़सर बाबुओं,
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
आप में आपका
आप में आपका
Dr fauzia Naseem shad
किसी को इतना भी प्यार मत करो की उसके बिना जीना मुश्किल हो जा
किसी को इतना भी प्यार मत करो की उसके बिना जीना मुश्किल हो जा
रुचि शर्मा
शहर के लोग
शहर के लोग
Madhuyanka Raj
■ हार के ठेकेदार।।
■ हार के ठेकेदार।।
*प्रणय प्रभात*
"अह शब्द है मजेदार"
Dr. Kishan tandon kranti
कभी गुज़र न सका जो गुज़र गया मुझमें
कभी गुज़र न सका जो गुज़र गया मुझमें
Shweta Soni
#अज्ञानी_की_कलम
#अज्ञानी_की_कलम
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
शायद ये सांसे सिसक रही है
शायद ये सांसे सिसक रही है
Ram Krishan Rastogi
मां कात्यायनी
मां कात्यायनी
Mukesh Kumar Sonkar
"वक्त के हाथों मजबूर सभी होते है"
ठाकुर प्रतापसिंह "राणाजी"
मौन पर एक नजरिया / MUSAFIR BAITHA
मौन पर एक नजरिया / MUSAFIR BAITHA
Dr MusafiR BaithA
জপ জপ কালী নাম জপ জপ দুর্গা নাম
জপ জপ কালী নাম জপ জপ দুর্গা নাম
Arghyadeep Chakraborty
ॐ
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
!! एक ख्याल !!
!! एक ख्याल !!
Swara Kumari arya
"फ़िर से आज तुम्हारी याद आई"
Lohit Tamta
एक दिन सफलता मेरे सपनें में आई.
एक दिन सफलता मेरे सपनें में आई.
Piyush Goel
33 लयात्मक हाइकु
33 लयात्मक हाइकु
कवि रमेशराज
कोई जब पथ भूल जाएं
कोई जब पथ भूल जाएं
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
*साहित्यिक बाज़ार*
*साहित्यिक बाज़ार*
Lokesh Singh
Raksha Bandhan
Raksha Bandhan
Sidhartha Mishra
डॉ अरुण कुमार शास्त्री - एक अबोध बालक - अरुण अतृप्त
डॉ अरुण कुमार शास्त्री - एक अबोध बालक - अरुण अतृप्त
DR ARUN KUMAR SHASTRI
क्या लिखते हो ?
क्या लिखते हो ?
Atul "Krishn"
बड़े ही खुश रहते हो
बड़े ही खुश रहते हो
VINOD CHAUHAN
बढ़ती हुई समझ
बढ़ती हुई समझ
शेखर सिंह
जय हनुमान
जय हनुमान
Santosh Shrivastava
2554.पूर्णिका
2554.पूर्णिका
Dr.Khedu Bharti
समय के हाथ पर ...
समय के हाथ पर ...
sushil sarna
रात बीती चांदनी भी अब विदाई ले रही है।
रात बीती चांदनी भी अब विदाई ले रही है।
surenderpal vaidya
बदलती हवाओं का स्पर्श पाकर कहीं विकराल ना हो जाए।
बदलती हवाओं का स्पर्श पाकर कहीं विकराल ना हो जाए।
ऐ./सी.राकेश देवडे़ बिरसावादी
Loading...