अघोषित नायक
काश…
प्रेमचंद आज तुम होते!
सुनी सुनाई ना सुनकर
अपनी आंखों देखते
किसानों के
सड़कों का कोहराम
इच्छाधारी गिद्धों को
हलिक की बदहाली, गरीबी पर घड़ियाली आंसू
बहाते।
और
लालकिले पर तिरंगे की अस्मत
को तार-तार होते।
श्रमबिंदु से लथपथ
कर्मवीर किसानों के साथ
सूरदास,जोहरा,माधो, होरी, हल्कू….
सब के सब शर्मसार हो
छाती पीटने लगते।
इसी बीच तुम्हारा कोई
अघोषित नायक
कोई किरदार
भीड़ को चीरता आता
और
नकली नकाब उतार जाता,
लोकतंत्र के चीरहरण का कृष्ण बन जाता।
काश..
प्रेमचंद आज तुम होते……!