अग्नि !तेरे रूप अनेक
हे अग्नि ! कितने है ,
तेरे अनेक रूप ।
कहीं ज्वाला है तू ,
और कहीं है धुप ।
कभी नन्ही सी लपटों में सिमटा ,
नन्हा सा दिया बन करे प्रकाश .
और कभी अति प्रचंड होकर ,
छु ले तू समग्र आकाश ।
एक रूप नन्हा सा तेरा ,
दूर करता अँधेरा है ।
और एक रूप भयंकर तेरा,
जीवन में कर देता अँधेरा है।
इतना ही नहीं !,
तू तो है हमारे दिल में भी जला करती ।
प्रेम ,विरह ,नफरत ,बैर ,
और लालसायों के रूप में है जगा करती ।
प्रेम व् विरह के रूप में ,
तो तू होती है शीतल ।
और घृणा,क्रोध व् बैर की तेज आंच के रूप
में तेरी सारी दुनिया जाती है जल।
जिस प्रकार एक नन्ही सी चिंगारी बन तू ,
दहक उठती है हवा के मेल से ।
और फिर और दहक उठती है ,
ज़रा से पेट्रोल से।.
उसी प्रकार शक की एक नज़र ,
बदल जाती है जब बैर में ।
अपने ही बदल जाते है ,
तब गैर में ।
दुश्मनी की आग या वासना की आग ,
कर देती है जीवन का विनाश ।
तू कर देती है हर रूप में ,
मनुष्य के जीवन का सर्वनाश।
तेरे ताप में तो हमारा वैसे ही ,
सारा जीवन है जलता रहता ।
किसी न किसी चिन्ता/ तनाव के रूप में ,
एक चिता के समान है जला करता ।
मगर इसके बावजूद ,
तेरी इन लपटों में तमाम उम्र जलने के बाद ,
जलना पड़ता है अंतिम बार ,
चिता की अग्नि में मृत्यु के बाद ।
जीवन से मरण तक ,
तू हमारे अस्तित्व का अंग है ,
जिस प्रकार बनी हुई ।
यूं लगे जैसे हमारे भाग्य में ,
ईश्वर द्वारा तू रची गई ।
जीवन के साथ भी जलना,
जीवन के बाद भी जलना ।
मनुष्य की नियति में है हे अग्नि !
हर हाल में जलना ।