अगर पुरानी मम्मी होतीं… – १
अगर पुरानी मम्मी होतीं… – १
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बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को
दुखी बहुत है कल संध्या से, क्या पाती दुत्कार वो?
अगर पुरानी मम्मी होतीं…
अगर पुरानी मम्मी होतीं
क्या वो ऐसे डाँट सुनातीं?
बात-बात पर इक बाला को
कह के क्या वह बाँझ बुलातीं?
पापा जो अब चुप बैठे हैं,
क्या वे चुप हो, बातें सुनते?
मेरे हँसी ठहाकों पर क्या
ऐसे ही वे चाँटे जड़ते?
कहाँ गयी पापा के मुख की, प्यारी सी लहकार वो?
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।
बहुत समय से सुनती आयी
मम्मी हैं भगवान सहारे
उनको देख नहीं पाती अब
चश्मे ना हैं पास हमारे
मेरी मम्मी बहुत समय से
चली गईं भगवान के पास
कब तक आयेंगीं मिलकर वो
मन में लिये हूँ बैठी आस
बिलख रही थी रुदन घड़ी में, चंबल की फ़नकार जो
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।
जब आँखों में आँसू आकर
तत्काल लुप्त हो जाते थे
रो रोकर कंठों के जुमले
कातर स्वर जब हो जाते थे
बूढ़ी ताई पास बुलाकर
बड़े प्यार से समझाती थीं
नयी-नयी मम्मी लायेंगीं
मेरे मन को बहलाती थीं
मेरी बेटी तुम्हीं एक हो, माँ के प्रथम करार को
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।
बहुत काम अब करने पड़ते
हाथ पड़े हैं पीले छाले
सखे-बंधु सब खेल रहे हैं
मुन्नी के कपोल हैं काले
झुकी लगाने को जब झाड़ू
इक कराह तब मुख से आयी
दादी ने देखा जब जाकर
दाग पीठ पर, लाल कलाई
बिलख पड़ीं जब बूढ़ी आँखें, बचपन सुख, आसार को
बैठी सोच रही है मुनिया, मम्मी की फटकार को।
…“निश्छल”