अखबारी दानवीर
“यार, जाड़ा निकला जा रहा है और बारिश नहीं हो रही।”
“ऐसा क्यों बोल रहे हो? तुमको कौन गेहूँ की फसल की सिंचाई की चिंता है? जाड़ा बढ़ जाएगा तो झोपड़ी में रहना मुश्किल हो जाएगा।”
“अरे,जाड़ा तो एक पेग लगाने से छू मंतर हो जाएगा।”
“क्या ,बेवकूफ़ों वाली बात करते हो? बारिश में पानी बरसता है ,शराब नहीं।”
“मेरे भोले भाई, बात को समझो। जब जाड़ा बढ़ेगा तभी तो लोग कंबल वगैरह बाँटने के लिए आएँगे।”
“हाँ, पर वे शराब नहीं बाँटेंगे।”
“पता है। जब वे कंबल बाँटेंगे तो थैली की व्यवस्था हम खुद कर लेंगे।”
“क्या बोल रहे हो? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा।”
“जब लोग कंबल बाँटते हुए फोटो खींचकर चले जाएँगे तब मैं वही कंबल बेचकर थैली लेकर आऊँगा।”
“तुम्हें कंबल ओढ़ने – बिछाने के लिए नहीं चाहिए?”
“चाहिए, पर कितने? फोटो खींचकर कंबल बाँटने वाले बहुत दानवीर हैं।मुझे कंबल की दुकान तो लगानी नहीं है।”
“मतलब लोग हमारी मदद करने के लिए इंसानियत के नाते कंबल बाँटने नहीं आते?”
“मैं यह नहीं कह रहा।उनका अखबार में नाम और फोटो छ्प जाता है और हमारी मदद भी हो जाती है।”
डाॅ बिपिन पाण्डेय