*”अक्स”*
“अक्स”
मेरा ही अक्स मुझे ढूढता फिरता रहता ,
न जाने क्यों आगे पीछे छोड़ घूमता ही रहता।
वो काली सी अक्स अक्सर लोग पूछते हैं ,
क्या तुम उससे बातें करती हो उससे नजरें मिलाती हो ,
परन्तु कैसे उससे बातें करें नजर मिलाए ,
वो आगे तो हम पीछे वो पीछे तो हम आगे बढ़ चलते ही जाते हैं।
आखिर अक्स जुड़ा हुआ जीवन से क्यों न पीछा छोड़ता ,
आगे पीछे घूमकर फिर न जाने कहाँ ,अदृश्य लुप्त हो जाता।
अक्स ही जो अपने जीवन के साथ साथ चलते ही जाता ,
जीवन सफर तय करते हुए एक दूसरे के संग पीछे ही चलते जाता।
शशिकला व्यास✍
स्वरचित मौलिक रचना