अकेले में
वो यादें आती हैं जब बैठे हो अकेले में ।
जैसे तड़पता है कोई घुसे जब कबेले में।।
कहां डालें हम कल की उन परछाइयों को
खिर रही हैं वो रेत सी खा के तपन ढेले में।।
अब कंधे ही कतराने लगे हैं भरोसा नहीं रहा
हमने घुमाया कभी था उन्हें बिठा के मेले में ।।
अब् मेरे घुनने के दिन हैं मजबूर कर रहे ये
फड़ फडा रही है ज़िंदगी बन्द होके थैले में।।
अफ़सोस हो रहा है हमें ज़िंदा निशानियों का
कभी बह गये थे बहुत दूर , वहाबों में ,रेले में।।
आँखे गढ़ रही हैं, उम्रों दराजी का तकाजा है
लद रहे हैं वो इश्क मेरे ,अब मैं हो के ठेले में।।
बहुत झेली हैं ठोंकरे ,इन अँधेरी ग़लीयों की
बीत गयीं साहब सब वो, यहीं खाई खेले में ।।