अकेलापन
अकेलापन किसी को डराता,
किसी के मन को अकेला रहना भाता।
आधुनिकता की होड़ में बहुत कुछ बदल गया,
मिलकर रहने की बजाय प्राइवेसी का जमाना हो गया।
अब लोग ज्यादा मिलना जुलना पसंद नहीं करते,
अपने में मस्त एकांत जीवन व्यतीत करते।
‘डोंट डिस्टर्ब’ का बोर्ड घर या दरवाजे के बाहर लगाते,
अपने ही घर में एक दूसरे से बात करने से कतराते थे।
हद तो वहांँ हो जाती जहांँ
माता-पिता ,
बच्चों की शक्ल देखने को तरस जाते।
एक समय था जब अकेलापन काटने को दौड़ता था,
आज कुछ भी काम करना है तो अकेले ज्यादा अच्छा लगता है।
कारण कुछ भी हो पर करोना काल ने,
इंसान को अकेलेपन का आदी बना दिया।
भीड़भाड़ से अकेले में रहना वह ज्यादा पसंद करता है,
फोन के कारण जिंदगी में बहुत से कामों को अकेला ही कर लेता है।
घर बैठे पर ही जब सब काम फोन पर हो जाता हो,
सोचिए फिर क्यों किसी से जाकर माथापच्ची हो।
ख्याल अपना – अपना पसंद अपनी अपनी,
मानो तो सब कुछ,ना मानो तो कुछ भी नहीं।
नीरजा शर्मा