अकाल
एक दिन पड़ा अकाल, मेरे पास के गांव में,
मिट रहा था सबका जीवन, हर छाँव के साथ में,
तड़प रहे पशु भूख से और रोते बालक भी,
सूख गए अश्रु सारे, माताओं के पलक पर ही,
कितने ही प्राण निकल गए,
कितनी ही आशाओं पर फिर गया पानी,
जिससे धरती भर जाती थी, छाती थी हरियाली,
आज उसी से हो गयी है, ये धरती खाली,
लो सूर्य भी बन विकराल, सर चढ़कर बैठ गया,
दिखाकर अपनी गर्मी प्रचंड, धरती को चिटखा दिया,
मेघ भी छिप गए कहीं, यहां नज़र ना आते थे,
गर्मी से डर गए वो भी, या दशा देख ना सकते थे,
मात्र अस्थि-चर्म का मिलाप था, हर प्राणी का शरीर,
तड़प तड़प के सब मरते ऐसे, चुभ गया हो ज़हरीला तीर,
मानुष जन्तु सभी चमचमाती, रेत पर थे दौड़ते,
भरा हुआ है यहां पर अमृत, शायद ये थे सोचते,
हे दयावान! अब दया कर, तू हो गया क्यों दयाविहीन,
हे मेघईश! हे नीरदेव! क्यों हो गए तुम शून्य विलीन ?
अब नज़र ना आती कोयल, और ओझल हो गया सुआ,
चूल्हे बुझ गए, जल गयीं चिताएं और सूख गया कुआं,
जलती चिताओं के सम्मुख खड़े परिजन,
रोते और बिलखतें हैं,
जल जाने को स्वयं भी चिता पर, बारम्बार मचलतें हैं,
ताक़त नहीं पर पकड़ें हैं, जाए ना सती के लिए,
“अरे छोड़ दो जाने दो, अब जीना है किसके लिए?”
ये कैसी अनावृष्टि हुई है, उजड़ गया हर घर का घर,
गरीब असहाय रो रहा, कोई पटक रहा पत्थर पर सर,
बिखर गयीं हैं इस धरती पर, लाशों की लड़ियाँ,
मंडरा रहे हैं चील गिद्ध, उड़ रहीं मौत की चिड़ियाँ,
ये बालक जिनसे काल के भविष्य की, उम्मीदें थीं,
आज उन्हीं की आंखों में, सदा के लिए नींदें थीं,
नेता अब तू छिप गया कहां, क्या खाली हो गया अन्नकोष,
क्या खाली हो गईं तेरी जेबें, जिनमें भरता था तू उत्कोच,
कहां गया तेरा वादा, कहां गयी तेरी दिलासा,
जिन्हें सुनकर हम सबमें, जगती थी एक नई आशा,
हम घर से बेघर हो गए, मासूम बालक अनाथ हो गए,
बिन पानी बिन भोजन हम, इस धूपमें घूम रहे हैं,
उधर महलों में रहकर तुम, हमको भूल गए हो,
बस कुर्सी पर बैठे अपना, पैसा चूम रहे हो,
दया करो अब दया करो, हे ईश! अब तुम दया करो,
ये नेता क्या कर सकता, अब तुम्ही हमें बचा लो,
करवा दो घनघोर वर्षा, मानव जीवन तृप्त बना दो,
बस मेरी नन्हीं सी, ये आशा कर दो पूरी,
ना हो दुनिया में कोई कष्ट, ना हो कोई अनावृष्टि ।
~ऋषि सिंह