अंधेरे का सच
जो सुबह के साथ ही
छुपे छुपे उग आता है
परछाइयाँ बन कर
दोपहर के बाद वो अंधेरा
जुट जाता है पूरी तरह
अपनी सत्ता के विस्तार में
हर किरण पर हावी
रोशनी को धराशायी करता
कोने — जंगल – मैदान
शहर – देश – दुनियां
शाम तक सभी
उसकी ही गिरफ़्त में ,,,,
रात तक दिन को परास्त कर
मुस्कुराता है चाँद तारों का मुकुट लगाये
कल फिर और फिर
तेजस्वी सूर्य के आगे
नतमस्तक होने को,,,,
यही तो है ना ?
मृत्यु और जीवन की भी कहानी
जिसे सुनाना भूल ही गई
दादी और नानी ,,,,,,
क्षमा उर्मिला