अंदर का सच
अंदर का सच (लघुकथा)
बहुत ही सुसभ्य, संयंमित, व्यवहार कुशल इंसान था वो जिसके व्यवहार को साथी कर्मचारी बहुत ही सराहा करती थीं। संभवत: कार्यालय में ऐसा कोई भी नहीं था जो उसकी बुराई करता दिखाई देता और न ही कोई आगंतुक ऐसा था जो उसके व्यवहार से दुखी होकर जाता। परंतु ये कहानी रोज की रहती सिर्फ सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक। शाम को कार्यालय से निकलते ही अधिकांश लोगों के कदम घर की ओर बढ़ते हैं पर ख्ाड़ाखड़ी के पैर बरबस ही चल पड़ते नागपुर के इतवारी रेडलाइट एरिया की ओर, और ऐसा तब होता जब वह अद्धी चढ़ा लेता।
उस दिन भी यही हुआ, कुछ ज्यादा ही पी गया था वह, एक वेश्या, जो कि वमुश्किल 14साल की थी और खड़ाखड़ी 55साल का। नित नए और कमसिन जिंदा मांस की भूख ही खड़ाखड़ी के दिलोदिमाग में समाई थी, कि माल जितना छोटा हो उतना अच्छा, मजा आता है। खैर, सौदा पक्का, ख्ाड़ाखड़ी नशे में बुरी तरह लड़खड़ा रहा था। जैसे-तैसे कमरे में पोती की उमर की वेश्या के साथ पहुंचा।
खड़ाखड़ी का हबसी राक्षस जिंदा मांस को नोंचने में व्यस्त था तो खड़ाखड़ी पूंछ बैठा – बेटी तेरा नाम क्या है। वेश्या की आंखों में आसूंओं की धारा बह निकली और मुंह से सिर्फ इतना कि क्या इस हालत में भी, मैं तुम्हें बेटी दिखाई देती हूं।
नशा काफूर हो चुका था, खड़ाखड़ी बहुत ही बोझिल कदमों से चला जा रहा था, क्योंकि ऐसा कभी न हुआ था, उसने निश्चय किया साला आज के बाद रंडी के पास, दारू पीकर नहीं आउंगा, अंदर का सच बाहर निकल आता है।