अंतहीन उत्सव
अंतहीन उत्सव
//दिनेश एल० “जैहिंद”
चोटिल विमला चौकी पर लेटी हुई थी। वह सिर दर्द और चोट की पीड़ा से परेशान थी।
सिर में ६ टांगे लगे थे। उसका चेहरा बहुत ही बुझा- बुझा और उदास था। वह काफी कमजोरी महसूस कर रही थी। वह चिंता में डूबी हुई थी।
उसके दिमाग में बहुत-सी बातें घूम रही थी – “मेरे साथ अचानक ये क्या हो गया? अब मेरा नव रात्रि का व्रत कैसे पूरा होगा?
उफ्फ़…चोट भी खाई और कन्या पूजन हेतु खरीदा गया सारा सामान भी चोरी चला गया। दो दिन पहले नया खरीदा हुआ मेरा मोबाइल भी उसी के साथ चला गया।”
विमला…
एक २८-३० बरस की दुबली-पतली एक काठी की युवा महिला थी। अगर कोई एक बार में देखे तो देखते ही डर जाय। सूखी पत्ती -सी बेजान औरत। उस पर से ६-७ दिन की भूखी सिर्फ फलाहार व जल की बदौलत नव रात्रि का व्रत पूरा कर रही थी। साथ ही हर दिन पूजा-पाठ, रसोई व शेष घर का काम-काज भी सम्भालती थी।
ऐसे में बाजार करके घर आते वक़्त रास्ते में अनहोनी घटना घट जाना मामूली बात है।
विमला चौकी पर पड़ी-पड़ी जितना सोचती थी, चिंता बढ़ती ही जाती, वह सिर में चक्कर-सा महसूस कर रही थी।
जिसने उसे मोटर साइकिल पर बैठा कर लाया था, वह पास में ही खड़ा था। वह कोई उसका दूर का रिश्तेदार था जो सामान चोरी होने के बाद उसे अपनी मोटर साइकिल पर बिठाकर घर लेकर आया था।
मोहल्ले के लोगबाग उसे देखकर दंग हो रहे थे। देखते-देखते उसके द्वार पर मोहल्ले की औरतों, बच्चों और बुजुर्गों की भीड़-सी लग गई। तीनों बच्चे दुख में पास ही खड़े थे। उसकी सासु माँ भी चिंतित वहीं खड़ी थी। सबने विमला को चारों तरफ से घेर लिया। था। सभी पूछते थे – “क्या हुआ ? कैसे हुआ ? कहाँ हुआ ?”
धीरे-धीरे ये बात गाँव में आग की तरह पसर गई। टोले भर की महिलाएँ व उसके पट्टी- पटिदार की औरतें व मर्द आकर उसके हाल-चाल पूछने लगे।
कुछ लोगों ने अपनी राय रखी- “इसे कमरे में लेटाओ, पंखा चला दो और इसके पास से सारे हट जाओ।”
हुआ भी ऐसा ही। सारे लोग धीरे-धीरे अपने-अपने घरों को बातें करते हुए लौट गए।
ठंडी हवा पाकर विमला की आँखें
झपकने लगीं। वह नींद में आते ही सपनों में खो गई –
“विमला खुद ही नवरात्रि समापन पर कन्या पूजन व प्रसाद के लिए बाजार करने गई है। वह सारा सामान खरीद चुकी है और सवारी गाड़ी पकड़ने के लिए नजदीकी स्टेशन पर आकर बैठी है। गाड़ी आने में अभी देर है। तभी उसे याद आती है कि कुछ खरीदे पत्तल व गिलास तो राशन दुकान पर छुट ही गए। याद आते ही वह बेचैन हो जाती है। फिर बदहवाशी में वह अपना सारा सामान पास बैठी एक महिला को देखते रहने को कहकर उसी राशन दुकान पर जल्दी से डेग भरते हुए जाती है।
……मगर वहाँ से आने में देर हो जाती है। और इधर समय पर गाड़ी आती है और चली जाती है।
विमला स्टेशन पर आती है तो देखती है कि न उसका सामान है, न वह महिला। वह पागल-सी हो जाती है। दुखी, परेशान व भूखी विमला और अधिक चिंतित हो जाती है।
वह हताश होकर चिंतित अपने घर को लौट चलती है। वह पैदल चलने में खुद को असहाय महसूस करती है। फिर भी जबरदस्ती वह चलती है। तभी रास्ते में संयोगवश उसका कोई अपना मोटर साइकिल से गुजरता हुआ मिल जाता है। वह उसे अपना हाल-चाल बताती है। रिश्तेदार उसकी दुर्दशा देखकर उसे घर पहुँचाने का वचन देता है। वह उसके मोटर साइकिल पर पीछे बैठ जाती है।
पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। जब मोटर साइकिल कुछ आगे बढ़ती है तो उसे चक्कर आ जाता है और वह मोटर साइकिल से पीछे की ओर गिर जाती है। गिरते ही उसके सिर में चोट लगती है।”
अचानक गहरी नींद में सोई विमला की आँखें खुल गईं। और अपनी दुर्दशा देखकर ग़मों के सागर में डूब गई।
उधर….
अपने घर को लौटते हुए औरतें बातें करती जाती थीं –
” भला ऐसा भी होता है? कहाँ व्रत की भूखी-प्यासी औरत और उसके साथ ऐसी दुर्घटना हो गयी।”
“भगवान भी अजीब है! एक तो बेचारी दुबली-पतली-सूखी औरत और फिर उसके नवरात्रि के उपवास व उत्सव में बाँधा आ गई।”
“अब तो उसका उपवास और व्रत तो टूट ही गया न ! अब क्या करेगी बेचारी!”
“हाँ रे.. मधु की माँ… ठीक ही कहती है। पर उसकी सास है न। देखो क्या करती है। कोई रास्ता होगा तो उसके व्रत का उपाय करेगी।”
तभी किसी और महिला ने सवाल पूछा – ” ….पर हम लोगों को तो ठीक से पता ही नहीं चला कि ये सब अचानक कैसे हो गया?”
तभी तपाक से कोई और बीच में टपकी – “अरे हुआ क्या था! ….आते समय मोटर साइकिल पर बैठे-बैठे सिर चकरा गया था, फिर मोटर साइकिल से गिर गई थी। गिरते ही सिर फट गया था।”
इसी तरह से किस्म-किस्म की बातें करते हुए सभी महिलाएँ अपने-अपने घरों को लौट गईं।
विमला के साथ जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ। उसका नवरात्रि का उत्सव ग़मों में तब्दील हो गया था। सामानों की चोरी के साथ-साथ शरीर को भी हानि पहुँची थी
सो अलग।
बाद में सुनने में आया कि विमला उसी अवस्था में अपने मायके चली गई थी। और
उसकी सासु माँ ने व्रत का उतारा लेकर नव रात्रि का उपवास भी रखा, व्रत भी पूरा किया और नवमी को बड़ी श्रद्धा से कन्या पूजन व भोजन भी कराया था।
सकारात्मक सोच हो और मन मजबूत हो तो जीवन में उत्सव का अंत नहीं है। ये मन उत्सव के सुवसर तलाश ही लेता है। और वक़्त मरहम-पट्टी बनकर जीवन में आता ही रहता है।
नोट : “यह कथा ग्रामीण परिवेश में रह रही एक महिला के साथ घटी सच्ची घटना पर आधारित है।”