अंतर्मन
अत्यंत सहजता से पूछो अपने मन से
अपनी कोमल और मृदुल भाव से
क्यों बढ़ते हैं कदम और रूक जाते है
अपनी कल्पना जनित स्वप्न लोक से
एक विक्षुब्ध दशा,
हृदय मे उपजती है
जैसे ओस की बूँदे,
कलाई से सरककर हथेली
में आ रूकती है।
मेरे इस चिंतन की अस्थिरता
है अन्तर्मन का अंधकार,
इस वेदना को जानती हूँ।
कहाँ तक उडूँ,
आकाश की निस्सीमता मे।
जग कर देखती हूँ
यह कल्पना है
फिर नींद की शयनकक्ष मे
डूब जाती हूँ!