//… अंतर्द्वंद …//
//… अंतर्द्वंद …//
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मन की भट्टी और तपती भावनाएं ,
देती यातनाएं मुझे मेरी ही कामनाएं …!
देखता हूं प्रेम से ,
जब तुम्हारी ओर मैं
दरिया के उस पार ,
खड़ी हो शमशान में …!
असंभव है अब मिलन ,
दिन जो है ढल गया
स्याह काली रात में,
भटकती हैं आत्माएं …!
मन की भट्टी और तपती भावनाएं ,
देती यातनाएं मुझे मेरी ही कामनाएं …!
जिस्म किसी और का ,
चाहत किसी और से
जरूरत कोई पूरी करे ,
जरूरत किसी और का …!
कैसा वक्त , कैसा अंधकार ,
बीच मझधार खोई पतवार
जीत /हार जाता हूं खुद से ,
कैसी हैं ये विडम्बनाएं …!
मन की भट्ठी और तपती भावनाएं ,
देती यातनाएं मुझे मेरी ही कामनाएं…!
मृग-तृष्णा के रेगिस्तान में ,
असहाय चला जाता हूं
दुनिया के इस मेले में ,
खुद को अकेला पाता हूं …!
रंजिश नहीं किसी और से ,
खुद से लड़ा जाता हूं
मन का मौसम है पतझड़ ,
गमों की आंधियां ,बढ़ रही हैं विपदाएं …!
मन की भठ्ठी और तपती भावनाएं ,
देती यातनाएं मुझे मेरी ही कामनाएं …!
कब रुकना , कहां रुकना ,
यहां किसे है खबर
बस चली जा रही है ,
नहीं है कोई रहबर.
सोचता हूं इस राह में ,
और कब तक चलना है
ना कोई ठौर ना ठिकाना ,
बस नोंच रहीं तन्हाएं….!
मन की भट्टी और तपती भावनाएं ,
देती यातनाएं मुझे मेरी ही कामनाएं…!
चिन्ता नेताम “मन”
डोंगरगांव ( छ. ग.)