अंतर्द्वंद
अंतर्द्वंद
मन का शोर तुमुल सा मचाता
अंतर्द्वंद कलेजा चीरता जाता
यादों के फंदों में जाते उलझते
निकास न जाने कौन से रस्ते
कोई पकड़ बाहर खींच लाता
ज़िंदगी की पेंचे सुलझा जाता
भटके विचारों की उथल पुथल
बसता अंतर्मन नीरव कोलाहल
रेखा
कोलकाता