अंतरम से मनुहार / प्रवीण प्रजापति
रूठूँ कैसे तुमसे सजनी
तुम ना करते मनुहार
प्रेम है फीका बिन इसके
ज्यूँ जल बिना मछली …..
पागल प्रेमी बन के राह निहारूं
तुम खुद ही बढ़ आओगी
प्रेम पगी फिर बतियाँ करके
तुम मुझको बहलाओगी
किन्तु तुम को लगता हममें
इन सबकी क्या दरकार
प्रेम है फीका बिन इसके
ज्यूँ जल बिना मछली…..
फूल भी खिलते तभी समय पर
सींचा उनको जब जाता
वरना नयन प्रतीक्षा में ही
पौधा मुरझा जाता
खिज़ा नहीं है भले ही मुझ पर
पर तुम लाते हो बहार
प्रेम है फीका बिन इसके
ज्यूँ जल बिना मछली…..