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21 Feb 2024 · 1 min read

अंजुरी भर धूप

अंजुरी भर धूप
जो काश मिल गयी होती
मेरे भी तन की सिलवटे
शायद दूर हो गयी होती।

शीत की लंबी सर्द राते
कटते नही कटती
काश भोर में ही अंजुली भर
धूप जो मिल गयी होती।

जीवन अबाध चलता रहा
धूप और छाँव आते-जाते रहे
जेठ की तपिश दोपहरी में
पावँ मेरे भी झुलसते रहे।

कहीं बरगद की छांव मिली
कही चुल्लू भर जल
मंज़िल दूर होती चली गयी
आराम करना चाहा कुछ पल।

बंदा ऐसा मिला नही रास्ते मे
दिखी हो जिससे निष्कामता
चीरहरण सर्वत्र वसूलों का देख
धैर्य शेष भी मेरा रहा जाता ।

जब झूम कर बरसा बादल
सर्वत्र घनघोर तम छाता रहा
अँजुरी भर धूप का मैं बेशक
मुसलसल मोहताज रहा।

निर्मेष सफर में हो कठिनाइयां
सच, साहस और बढ़ती है
अगर बिकने का भाव त्यागो
तो कीमत और बढ़ती है।

निर्मेष

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