अंगूर की मेरे अंदर एक यात्रा
अंगूर की मेरे अंदर एक यात्रा
माँ कहा करती थी
अंगूर खट्टे होते हैं बेटा
मन भोला था मान लेता था
पर क्या सिर्फ़ ग़रीब के अंगूर खट्टे होते हैं
वो डॉक्टर साहब का बेटा
झूले पर बैठ कर रोज़
अंगूर खाता है
कुछ खाता है कुछ
नीचे बैठे टौमी को खिलाता है
तो उनके अंगूर मीठे होते हैं
कँटीली तार के पार से
ये मंज़र रोज़ देखता था
दोपहर तीन बजे अंगूर वाला
अपनी टोकरी में अंगूर लिए
आवाज़ लगाता और हम
आँखें गाड़े टकटकी ।
नज़रें लटकती टोकरी से
झाँकते अंगूर पर रहती।
मन करता एक बार
लपक के झपक ले गुच्छा
दुस्साहस किया भी एक दिन
गाल पर छाप पड़ गई
अंगूर लाल रंग का
उभर आया मेरे गालों पर
उस दिन जान गया था
अंगूर खट्टे नहीं मीठे होते हैं
पर माँ को हमेशा यही पता रहा
कि मुझे यही पता है
अंगूर खट्टे होते हैं।
उस दिन से उन मीठे अंगूरों ने
इतनी कड़वाहट घोल दी और
एक ज़िद भी उँडेल दी मेरी रगों में
कड़वी ज़िद अच्छी होती है
आज २५ साल बीत चुके हैं
अंगूर ने एक पूरी यात्रा की है
मेरे अंदर मेरी ज़िद के साथ
मैं अमेरिका के क्लब में
खेल रहा हूँ
अंगूरों को पैरों तले
कुचलने का खेल
एक अजीब सा आनंद है
जैसे पिघल रहा हो
मेरे अंदर बरसों की जमी खुरचन
और आँखों से हिम पात बरस रहे
अश्रुपात की जगह
ज़रूर कोई ज्वालामुखी
अपनी शांत अवस्था की ओर
बढ़ चला है।
आज भी अंगूर खा नहीं पाता
आज भी ज़िंदा रखता हूँ
कड़वाहट अंगूर की
और भरता हूँ हर उस का पेट
और मुँह अंगूर से
जो कँटीली तारों से झाँकते
दिखते है मुझे
और जिनकी आँखों में
अंगूर पाने की चमक दिखती है
यतीश ३१/१२/२०१७