अंकुर मन के
कुछ अंकुर फूटे इस मन में ।
शब्दों के सृजन सघन वन में ।
सींच रहा हूँ भावों के लोचन से,
भरता अंजुली शब्द नयन में ।
अस्तित्व हीन रहे वो अंकुर ,
शब्दों के इस बियाबान वन में ।
घुट कर रह जाते अक्सर जो ,
अर्थो की अक्सर उलझन में ।
वृक्ष घने जिसके सर पर ,
कैसे पहुँचे वो गगन में ।
अंकुर फूटे कुछ इस मन में ।
…. विवेक दुबे”निश्चल”@..
Blog post 14/5/18