अँधियारे में जीने दो
अँधियारे में जीने दो,
भय मुझको अब लगता है,
प्रत्यक्ष जग में दिखता हूँ,
खुद के मन से छुपता हूँ।
ये तीव्र रोशनी सच्चाई का,
काँटो सा मुझको चुभता है,
अँधियारे में जीने दो,
भय मुझको अब लगता है,
जो जुल्म किया औरों के संग
दुःख है दिया अपनो के घर,
आंसू ना पोछा मुसीबत के पल,
लौट लौट कर मन कुरेद रहे है।
अँधियारे में जीने दो,
भय मुझको अब लगता है …।
खूब मजे तब लूटा था,
जवानी में जब भूला था,
खूब सताया माँ-बाप को,
खोया सेवा का पुण्य मौका था।
अँधियारे में जीने दो,
भय मुझको अब लगता …।
ईर्ष्या क्रोध में दम भरता था,
चकाचौंध मे मरता था,
धन दौलत के लालच मे,
स्वार्थ मे तरक्की पाया था।
अँधियारे में जीने दो,
भय मुझको अब लगता है ….।
धोखा देना विश्वास तोड़ना,
इस कलयुग की रेखा है,
दुःख और सुख को समझ न पाना,
संस्कार चरित्र को बेकार बताना।
अँधियारे में जीने दो,
भय मुझको अब लगता है,
यही तुम्हारी परेशानी है,
बड़ो की बात नहीं मानी है,
अधूरे ज्ञान पर खूब उछलते रहे,
अब क्यों जीने से घबरा रहे।
अँधियारे में जीने दो,
भय मुझको अब लगता है ….।
पछताने से अब क्या है फायदा,
जीने का सीख लो कायदा,
बहुत बड़ी बात ना कहता,
धीरज धर कर पा लो रास्ता।
रचनाकार –
बुद्ध प्रकाश
मौदहा हमीरपुर।