हुनर है झुकने का जिसमें दरक नहीं पाता
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ग़ज़ल
हुनर है झुकने का जिसमें दरक नहीं पाता
शजर वो टूटता है जो लचक नहीं पाता
मेरी तो आबरू इसने बचा ही रक्खी है
तेरा लिबास बदन तेरा ढक नहीं पाता
बुरी निगाह से महफूज़ रहतीं हैं हर दम
वो जिनके सर से दुपट्टा सरक नहीं पाता
लगेगा कैसे उसे सब्र का ये फल मीठा
वो तोड़ लेता है पहले ही पक नहीं पाता
सदाक़तो से है रौशन ज़मीर जिसका ‘अनीस’
वो शख़्स राह से अपनी भटक नहीं पाता
– अनीस शाह “अनीस”