*सरकारी दफ्तर में बाबू का योगदान( हास्य-व्यंग्य )*

*सरकारी दफ्तर में बाबू का योगदान( हास्य-व्यंग्य )*
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मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सरकारी दफ्तरों में बाबू के महान योगदान का कभी भी ठीक प्रकार से आकलन नहीं किया गया । वह पूरा दफ्तर सँभालता है । उसके बाद भी उसे साहब का अधीनस्थ बनकर ही काम करना पड़ता है। दिनभर फाइलों से बाबू जूझता होता है और अफसर आराम से कुर्सी पर बैठा रहता है।
किसी को भी सरकारी दफ्तर में कोई भी काम हो ,क्या आपने सुना है कि वह सीधे अधिकारी के पास मिलने के लिए जाता है ? नहीं जाता है । वह सबसे पहले बाबू से मिलता है । उसे अपना काम बताता है। मामला फिट करता है। उसके बाद बाबू उसके आवेदन – पत्र को पढ़ता है । अनेक बार उससे नया आवेदन-पत्र लिखवाया जाता है । फिर उस आवेदन-पत्र पर किस प्रकार से कार्य हो, इसके बारे में अपना दिमाग लगाता है । फाइलों से जूझता है और तब फाइल तैयार करके अपनी सुंदर और सटीक टिप्पणी के साथ साहब के सामने प्रस्तुत करता है । साहब बाबू की टिप्पणी पढ़ते ही उस पर आदेश मात्र करते हैं और हस्ताक्षर कर देते हैं । अनेक बार तो साहब को आदेश लिखना भी नहीं आते, वह भी बाबू से ही पूछते हैं कि क्या आदेश किया जाए ? ऐसे में बाबू बोलता जाता है ,साहब आदेश लिखते चले जाते है।
मेरी राय में सरकारी दफ्तर में बाबू की कुर्सी दो फीट ऊँची होनी चाहिए तथा उसकी बगल में अफसर की कुर्सी एक फीट ऊँची होनी चाहिए । बाबू उच्च-आसन पर बैठे तथा अफसर निम्न पर विराजमान हो । बाबू सारे कार्य करने के बाद साहब को आदेश दे कि आप इस पर अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। यही उचित रीति होनी चाहिए। लेकिन हमारे देश में सब कार्य सही ढंग से कहाँ हो पाते हैं ? बाबू को अपनी खुद की सुविधा – शुल्क भी लेनी पड़ती है तथा साहब के हिस्से का सुविधा – शुल्क भी स्वयं ही लेना पड़ता है । साहब के हिस्से का जो सुविधा शुल्क बाबू लेता है ,उसमें से भी अपना हिस्सा साहब को देने से पहले काट लेता है । कितना कष्टमय तथा संघर्षों से भरा हुआ बाबू का जीवन होता है !
बाबू सरकारी दफ्तर की रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क होता है । इतना ही क्यों ,वह सरकारी दफ्तर का मुँह , दाँत ,ऑंखें ,गर्दन , हाथ -पैर और पेट भी होता है । वह न हो तो दफ्तर न चले ,वह न हो तो दफ्तर काम न करें, वह न हो तो सोचने की प्रक्रिया रुक जाए, बाबू न हो तो दफ्तर अस्त – व्यस्त हो जाएगा ।
बाबू को कभी भी आप दफ्तर में साहब से कम मत समझिए । अनेक बार बाबू आपको साहब के सामने नतमस्तक हुआ दिखाई पड़ेगा । लेकिन कई बार बाबू को अपनी उच्च भूमिका का बोध हो जाता है तथा वह *अहम् ब्रह्मास्मि* की स्थिति को प्राप्त कर लेता है अर्थात उसे यह ज्ञान हो जाता है कि मैं ही सब कुछ हूँ तथा मेरे कारण ही सारा दफ्तर चल रहा है। मैं ही वह व्यक्तित्व हूँ ,जो साहब को अपनी उंगलियों पर नचाता हूँ और सारे दफ्तर में सब मेरा ही अनुसरण करते हैं । तब बाबू की गर्दन अकड़ जाती है और वह साहब के सामने गर्दन ऊँची करके बात करना आरंभ कर देता है ।
मैं बहुत से बाबुओं को जानता हूँ जो ईमानदारी तथा कर्तव्य निष्ठा से कार्य करते हैं। वह दफ्तर को सुचारू रूप से चलाते हैं। अपने साहब का मार्गदर्शन करते हैं तथा उनके अधीनस्थ एक आदर्श व्यवस्था कायम करते हैं मगर उनकी संख्या अधिक नहीं है। ऐसे बाबू वास्तव में आदर्श हैं, किंतु अपवाद स्वरूप ही हैं।
ऐसे ही हमारे एक मित्र सरकारी दफ्तर में बाबू हैं। ईमानदार हैं ।जब शाम को दफ्तर से काम निपटा कर घर के लिए लौटते हैं तो जेब खाली होती है। अनाज मंडी से सामान दैनिक जरूरत का अक्सर उधार ले जाते हैं ।एक दिन दुकानदार ने पूछ लिया “आप क्या काम करते हैं ? “वह बोले “मैं सरकारी दफ्तर में बाबू हूँ।” दुकानदार को विश्वास नहीं हुआ । वह मुझसे पूछने आया । मैंने कहा” हाँ ! यह ईमानदार हैं ।” वह बोला “तभी जेब खाली रहती है !”
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*लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा*
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