वह स्वयं में व्याप्त है ::: जितेन्द्र कमल आनंद ( पोस्ट९५)
वह स्वयं में व्याप्त है ( मुक्त छंद कविता )
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प्रिय आत्मन !
घड़ा तो एक दिन फूटना ही है
जल का पूरक , कुम्भक , रेचक,
सभी पीछे छूटना ही है ,
जब उसके सभी अवयव
अपने घटको में मिल जायेंगे तो क्यों न
इसके पूर्व ही तृष्णा के तमस से –
वासना के बन्धन से / कामना के क्रंदन से
कल्पना की अल्पना से
अपने को मुक्त कर लें
बाहर की गवेषणा अन्तर्मन में कर लें
क्योंकि —
जिससे मिलने की आतुरता है
वह पानी में बतासे की भॉति
घुला – मिला वर्तमान है ,
स्वयं में व्याप्त है ।
——– जितेंद्र| कमलआनंद