” वतन “
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ग़ज़ल
स्वर्ग से भी है लगे न्यारा वतन
प्राण से बढ़ कर हमें प्यारा वतन
संदली सी गंध माटी की उड़े
है भरा खुशबू लिए सारा वतन
इस धरा पर देव उतरे हैं सदा
खल जनों से है नहीं हारा वतन
जाति , मज़हब भेद जो करता नहीं
गंग सी निर्मल कहो धारा वतन
गिरि शिखर पर हैं खड़े रणबाँकुरे
है उन्हीं पर जाए बलिहारा वतन
तीन रंगों में समाए हम सभी
है तिरंगा नाज़ दिलहारा वतन
छू रहा ऊँचाइयाँ चूमे “बिरज”
है सभी की आँख का तारा वतन
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्य प्रदेश )