लघुकथा- ‘रेल का डिब्बा’
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खचाखच भरी रेल के सामान्य डिब्बे में मोहित जैसे ही ऊपरी सीट पर चढ़ा, निचली सीट पर बैठी लड़की तमतमाकर बोली -“अरे ! दिखाई नहीं देता क्या? यहाँ पहले से हमारा बैग रखा हुआ है, चलो उतरो यहाँ से ।” मोहित पहले तो झेंपा, फिर अधिकारपूर्वक बोला-” अरे, यह सामान्य डिब्बा है, तुम लोगों का आरक्षण है क्या यहाँ?” जैसे ही उस लड़की के साथ बैठा हुआ युवक गुस्से में भरकर मोहित से दो-दो हाथ करने को तैयार हुआ तो उसे रोककर वह स्वयं आ भिड़ी -“क्या कर लेगा तू ? मैं लड़की हूँ, हाथ लगाकर दिखा चल अभी जेल के अंदर दिखाई देगा।” झगड़ा बढ़ते देख आसपास भीड़ इकट्ठी हो गई। एक यात्री बोला-“बैठ जाने दीजिए न बहन जी, वैसे तो ऊपरी सीट समान रखने के लिए होती है, लेकिन अभी खाली है…।” लड़की का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था वह फिर बोली-“अरे ! बड़े आये वकालत करने वाले ! हमने पहले जगह रोकी है, सीट हमारी हुई ।यहाँ से हटना पड़ेगा।” काफी नोंकझोंक के बाद आखिरकार मोहित को हटना पड़ा। लड़की ने ऊपरी सीट पर चादर बिछाया और आराम से लेट गई । निचली सीट पर वह युवक एवं अन्य यात्री पसर-पसरकर बैठ गए।ट्रैन सीटी देकर चल पड़ी । डिब्बे में चारों तरफ भीड़ खड़ी थी। मोहित लम्बी दूरी तक खड़ा रहा। ऊपरी सीटों पर सोए हुए अन्य यात्री भी खर्राटे भरने लगे।