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24 Nov 2022 · 10 min read

मैं वो नहीं

प्रसंग १
शादी में मिली नई मोटरसाइकिल की पहली सर्विसिंग की उतनी ही फिक्र होती है जितनी नई नवेली पत्नी को ब्यूटीपार्लर जाते देख कर पैदा होती है , सो जब मोटरसायकिल की पहली सर्विस कराने का समय आया तो मैं इस डर से कि मैकेनिक अच्छे ढंग से काम करे और कोई पार्ट कहीं बदल न दे की नियत से एजेंसी के केंद्र में खुद खड़े हो कर अपने सामने सर्विसिंग कराने पहुंच गया । सुबह करीब दस बजे का वख्त था , जाते ही मेरा नम्बर आ गया । थोड़ी ही देर बाद गाड़ी धुल कर आ गई और मेकेनिक ने चंद मिनटों में कार्बोरेटर इत्यादी एक अखबार पर खोल कर बिखरा दिया मानों किसी सर्जन ने परफोरेशन के मरीज़ का पेट खोल कर छेद ढूढ़ने के लिये अंतड़ियों को ऑपेरशन थियेटर की टेबल पर फैला दिया हो । मैं बड़े ध्यान से उसकी कार्यवाही देख रहा था तभी एक आवाज़ सुनाई दी –
” शुक्ला , पाना ( एक औज़ार ) दे ”
मैंने अपने आस पास देखा , वहां और कोई और न था । मैं अनसुनी करते हुए आराम से खड़ा रहा ।
तभी फिर आवाज़ आई –
” अबे शुक्ला पाना ला ”
मैंने फिर अपने अगल बगल देखा , वहां कोई न था , अतः मैं चुपचाप पूर्वत खड़ा रहा । तभी एक ज़ोरदार थप्पड़ की गूंज के साथ मेरे कानों में आवाज़ आई –
” अबे भो** के शुक्ला , पाना ले कर आ ”
अब मेरी नज़र मेरे सामने खड़े एक लड़के पर पड़ी जो रुआंसा हो कर अपना गाल सहला रहा था , जिसे गाल पर उकड़ूँ बैठे मैकेनिक ने उचक के थप्पड़ जड़ दिया था । मेरे सम्मुख एक क्रोंच वध सदृश्य घटित कारुणिक घटना से मेरे कापुरुष के भीतर का वाल्मीकि जाग्रत हो उठा था । वह बेचारा एक दीन हीन अपने अंगों एवम अंगवस्त्रों पर ग्रीस और मोबिल ऑयल से सने और साइलेंसर के कार्बन से अटे मैले कुचैले चीकट थ्री पीस में – पाजामा बुशर्ट और चप्पल धारण किये खड़ा था । उसने आगे झुक कर मकैनिक के पास पड़ा पाना उठा कर उसे पकड़ा दिया । कुछ ही देर में मैं जान गया कि मैकेनिक उस लड़के को कोई काम डांट कर , चपत लगा कर या गाली दे कर ही कहता था , यह उन दोनों का काम करते समय गति बनाये रखने के लिए आपसी कार्य व्यवहार की शैली का हिस्सा हो सकता था । पर हर बार उसे गरियाने या चपतियाने से पहले उसका सम्बोधन शुक्ला कह कर दुर्व्यवहार मुझे कहीं कचोट रहा था । मैं आहत मन से उसका उत्पीणन देखता रहा । मैं मानवीय दृष्टि से मैकेनिक को कुछ सदाचार व्यवहार का उपदेश देना चाह रहा था पर मेरा अहम कहीं आड़े आ गया । वह पीड़ित शुक्ला था , शुक्ला मैं भी था , गाड़ी के फ्री सर्विस कूपन पर मेरा यही नाम लिखा था पर मैं तठस्थ भाव से उस दीन पर उमड़े अपने स्नेह को छिपाते हुए अपनी पहचान से अनजान बन जताता रहा –
” मैं वो नहीं ”
==============================
प्रसंग २
यह बात उन दिनों की है जब रेल यात्रा में फोटो पहचान पत्र की आवश्यकता नहीं होती थी और न ही इतने वातानुकूलित डिब्बे होते थे । एक बार मैं थ्री टियर शय्यान में यात्रा कर रहा था । मेरे बराबर के यात्री ने बिना किसी किसी उकसावे के टी टी महोदय के आने पर ऊपर की बर्थ पर लेटे लेटे उनसे पूंछा
” सर , मेरा नाम रमेश है और मेरे हमउम्र पड़ोसी का नाम कमलेश है , यह रिज़र्वेशन कमलेश का है जो किसी कारणवश यात्रा नहीं कर सका , क्या मैं उसकी जगह पर यात्रा कर सकता हूं ? ”
टी टी साहब – ” नीचे आ जाइये ” कह कर आगे बढ़ गये ।
फिर थोड़ी देर बाद मैंने देखा उस बर्थ पर अन्य कोई यात्री आ कर लेट गया था और रमेश कम से कम ढाई बजे रात तक टी टी साहब के पीछे पीछे बर्थ प्राप्ति हेतु विनती करते हुए डिब्बों में चक्कर लगा रहा था । फिर मेरी आंख लग गई और उसका न जाने क्या हुआ ।
कालांतर में मुझे लखनऊ जाना था , किसी तरह यह खबर वार्ड में भर्ती मरीजों तक पहुंच गई , उन्हीं में भर्ती ह्रदय आघात से पीड़ित एक मरीज़ के सगे भाई मुझे अनुग्रहीत करने के उद्देश्य से शाम को लखनऊ तक का ए सी टू टियर का एक टिकट लेकर मेरे पास आये और बोले –
” सर , आपके लिए मैं ए सी सेकण्ड क्लास का टिकट लाया हूं , मैं कचहरी में काम करता हूं । हमें विशेष आरक्षित कोटे में यात्रा करने के लिये साल भर में अनेक मुफ्त के कूपन मिलते हैं , जिसमें आखरी वख्त रिज़र्वेशन चार्ट छपने से पहले तक आरक्षण मिल जाता है ”
मैंने उन्हें बताया कि मेरे पास पहले से ही इसी ट्रेन में एक थ्री टियर का टिकिट है और मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है ।
इस पर वो बोले –
” सर , टिकट तो मैं बनवा कर ले ही आया हूं , मेरी और आपकी उम्र भी लगभग एक ही होगी , यह रेज़र्वेशन वहाबुद्दीन के नाम से है बस आप को यही याद रखना है , टी टी पूंछे तो बता दीजिये गा ”
फिर मेरी मेज़ पर टिकिट रख कर वो चला गया ।
रात को घर से निकलते हुए यह सोच कर कि ये यहां पड़े पड़े क्या करे गा , मैंने वो टिकिट उठा कर जेब में डाल लिया । प्लेटफार्म पर गाड़ी आने पर संयोग से वह ए सी सेकिंड क्लास का डिब्बा ठीक मेरे सामने आ कर रुका था , फिर न जाने किस भावातिरेक में एक साहसिक यात्रा का लुत्फ़ उठाने के चक्कर में , मैं उस डिब्बे में घुस गया और उस क्रमांक वाली साइड अपर बर्थ पर जा कर लेट गया । मेरा थ्री टियर का टिकिट मेरी जेब में सुरक्षित पड़ा था पर इस हड़बड़ी में अपना इस ए सी रेज़र्वेशन वाला नाम भूल चुका था , बस इतना अंदाज़ था की नाम वहाबुद्दीन या वहीदुद्दीन जैसा कुछ था । मन ही मन मैंने अभ्यास कर लिया था कि पूंछे जाने पर इन दोनों नामों के आरंभ के अक्षरों में -ददुदीन की सन्धि लगा कर उनींदी आवाज़ में कोई नाम बोल दूं गा । काफी देर तक कुछ नहीं हुआ , न कोई आया न गया । ट्रैन को प्लेटफार्म छोड़े करीब एक डेढ़ घण्टा हो चुका था , तब जा कर टी टी साहब सबका टिकट चेक करने आये । मैं लंम्बी और गहरी सांसे लेता हुआ चुपचाप लेटा रहा । मेरी बर्थ के करीब आ कर अपने चार्ट में नीचे देखते हुए उन्होंने पुकारा –
” वहाबुद्दीन ”
मैंने ” जी ” कह कर टिकट उनकी ओर बढ़ा दिया और उन्होनें उसपर टिक लगा कर मुझे वापिस कर दिया । टी टी साहब आगे बढ़ कर सम्भवतः दूसरे डिब्बे में चले गये । गाड़ी बरेली पार कर चुकी थी , सीधे लखनऊ ही रुकना था , अब रास्ता साफ था ।
पर इस बीच कुछ ऐसा हुआ कि जिसने मेरी धड़कनें बढ़ा दीं । हुआ यूं कि मेरे सामने नीचे वाली बर्थ के कोने पर एक मुल्ला जी बैठे थे और जब मैंने टी टी साहब से वहाबुद्दीन का नाम पुकारे जाने पर जी कहा वो उन मुल्ला जी ने भी सुन लिया था । मुझे लगा तबसे वो बीच बीच में मेरे ऊपर अपनी तिरछी नज़र टिका लेते थे । जब मैं लेटने जा रहा था तो मुझे लगा कि वो मुझे मुस्कुराते हुए अपनी गर्दन टेढ़ी कर बड़े ध्यान से सिर हिला हिला कर मुझे देख रहे थे , पर यह भी हो सकता था कि उस समय वो अपने कान कुरेदने का उपक्रम कर रहे हों और यह मेरा भृम था कि वो मुझे देख रहे थे । उनकी एक नज़र ने मेरा विश्वास हिला दिया और मैं धीरे से अपनी बर्थ पर लगे पर्दों को चिपका कर बन्द कर के लेट गया । मुझे लगा मेरे इम्तिहान की असली घड़ियां अब गुज़र रहीं थीं , मानों इस इम्तिहान के लिए टी टी पर लिखने का निबन्ध तैयार कर के आया था और प्रश्न पत्र में आ गया लिखने को निबन्ध मुल्ला जी पर । देर रात संडास के पास से गुज़रते हुए फिर एक बार उन्हीं मुल्ला जी से मिली नज़र से मेरे होश उड़ गये जब कि वो सामान्य से लग रहे थे । मैं वापिस आ कर अपनी बर्थ पर लेट गया । मेरी नींद उड़ गयी थी । मैं व्यथित मन से यात्रा करता रहा । एक बार मन हुआ की चलो थ्री टियर में अपनी बर्थ पर जा कर खुल कर लेटा जाय फिर यह सोच कर कि हो सकता है टी टी ने मेरी बर्थ खाली जान कर किसी और को दे दी हो गी , ऊपर से डिब्बे भी आपस में जुड़े नहीं थे अतः मन मार कर लेटा ही रहा । किसी तरह रात कटी सुबह हुई डिब्बे से बाहर प्लेटफार्म पर उतर कर एक बार फिर उन मुल्ला जी से मेरी द्रष्टि मिल गई और शिष्टाचारवश अपने अपने तरीके से एक यथोचित अभिवादन के आदान प्रदान के साथ हम लोग अलग हो लिये । टी टी साहब आदि का दूर दूर तक पता नहीं था । सबसे पहले मैंने ए सी का टिकट जेब से निकाल कर कूड़ेदान में डाल दिया और अपने नाम के थ्री टियर के टिकिट को थामे रेलवे स्टेशन से बाहर आ गया । मैं चाहता तो किसी समय भी अपना परिचय प्रगट करने का मूर्खतापूर्ण दुस्साहस कर सकता था पर न ही उसकी आवश्यकता पड़ी और न ही मेरे अहम ने इसे ज़रूरी समझा कि किसी स्तर पर मैं यह जताता –
” मैं वो नहीं ”
===============================
प्रसंग ३
उन दिनों जिस जिला अस्पताल में मैं कार्यरत था वहां ओ पी डी में लकड़ी के तीन खोखे ( cabins ) थे जिसमें बीच वाले खोखे में मैं बैठता था और मेरे बाईं ओर डॉ सक्सेना । हम दोनों के बीच पच्चड़ उखड़ा एक वुड प्लाई का पर्दा था । मेरी नाम की तख्ती खोखे की चौखट के बीच में सामने की ओर लगी थी जब कि डॉ सक्सेना की तख्ती हम दोनों के बीच की दीवार पर खड़ी कर के लगी थी , जिसके दोनों ओर डॉ सक्सेना लिखा था , जो दोनों खोखों को इंगित करती प्रतीत होती थी , अर्थात मेरे खोखे के आगे खड़े हो कर देखने पर लगता था कि अंदर बैठा मैं ही डॉ सक्सेना हूं । कुछ दिन पूर्व ही इस जिले में मेरी तैनाती हुई थी जब कि डॉ सक्सेना पिछले कई वर्षों से तैनात थे ।
एक दिन भरे ओ पी डी की भीड़ को धकियाते हुए वार्ड बॉय ने अपनी गर्दन ऊंची कर आवाज़ लगाई कि एक नेतानी बाहर गाड़ी में हैं , उनकी सांस फूल रही है , वो गर्दा काट रहीं हैं । यहां आ कर या इमरजेंसी में जा कर दिखाने को तैय्यार नहीं हैं , आप बाहर चल कर उनको देख लीजिये । मैं आला ले कर टांगे सीधी करने ओपीडी से बाहर निकल आया । अस्पताल के पीछे वाले पोर्टिको के नीचे एक कार में एक महिला के झगड़ने , शोर मचाने की आवाज़ बीस मीटर दूर से ही मुझको सुनाई दी जिससे मुझे बिना उनको देखे ही अंदाज़ हो गया था कि वो किसी पुरानी बीमारी से ग्रसित हैं और तमाम अस्पतालों और डॉक्टरों का इलाज झेल चुकने के बाद यहां आई हैं । पास जाने पर मेरा शक सही निकला । वो कार की अगली सीट पर बैठी थीं , मुझे आला लिए देख कर और बिफर गई और मुझे झाड़ लगाते हुए बोलीं –
” इतनी देर से मेरी सांस फूल रही है , आप अब आ रहे हैं ”
मरीज़ मरीज़ होता है और उसकी हर हरकत एक लक्षण । मैंने खामोशी से उनका परीक्षणकर उन्हें बताया कि आप पुरानी दमैल हैं और इस समय आपको को दमे का दौरा पड़ा है , आप भर्ती हो जाइये । इस पर भर्ती होने से इन्कार करते हुए
उन्होंने अपने किसी चेले से हांफते हुए पूंछा –
” ज़रा बताइए क्या नाम है इनका , इनका नाम क्या है ”
कोई चेला बोल उठा – ‘ ये डॉ सक्सेना हैं ”
बस फिर क्या था , अब वो मेरा नाम – डॉ सक्सेना ले ले कर डांटने लगीं –
” डॉ सक्सेना सुधर जाइये ,
डॉ सक्सेना मैं आपको देख लूं गी
डॉ सक्सेना जल्दी से मुझे इंजैक्शन लगवाइए
डॉ सक्सेना आप अपने आप को समझते क्या हैं
डॉ सक्सेना मैं आपको ठीक कर दूं गी ………….. ”
मैं जिले में नया आया था और हम दोनों एक दूसरे की दबंगई और शराफ़त से अपरिचित थे । जैसा कि भगवान गौतमबुद्ध ने कहा है कि आप अपने आप को कितना भी धैर्यवान समझते हों पर आप के धैर्य की परीक्षा तब होती है जब कोई आप को गाली देता है । अतः अपने धैर्य का परिचय देते हुए शांत रह कर मैंने फ़ार्मेसिस्ट से उनको तुरन्त सांस के इंजैक्शन्स लगाने के लिये कह दिया जो उसने कार से बाहर निकली खिड़की पर टिकी उनकी स्थूल बांह पर लगाना शुरू कर दिये , इस बीच उनके द्वारा मुझे हड़काना ज़ारी रहा और मैं सोच रहा था कि एक सफल चिकित्सक के जीवन में जब तक दो चार बार उसे मरीज़ की डांट फटकार , गालियां , मदहोशी में लातें नहीं पड़ जाती हैं , उसका सबक पूरा नहीं होता । एक चिकित्सक के जीवन में प्रायः विनती कर इलाज़ लेने वाले अधिक आते हैं पर उसे धमका कर इलाज़ लेने वाले मरीज़ बिरले ही मिलते हैं । मैं मुदित मन से उनकी लताड़ झेलता रहा , मुझे लगा गालियां तो डॉ सक्सेना जी को पड़ रही हैं मुझे क्या फर्क पड़ता है ।
एक बार फिर मेरे एहम ने मुझे फिर मुझे यह कहने से रोक दिया –
” मैं वो नहीं ”
============
कभी कभी सोचता हूँ कि इन प्रसंगों में मेरा अन्तर्मन चाह कर भी यह कह न सका –
उस मैकेनिक से , उस टी टी से या उस नेतानी से कि कह दो – तुम शुक्ला हो – ” मैं वो नहीं ” जो तुम समझ रहे हो ।
कहते हैं नर में नारायण ( हरि ) का और नारी में लक्ष्मी का वास होता है । हर प्रसंग में मेरे सम्मुख मानों लक्ष्मीनारायण रूप धर के प्रगट हुए थे , पर हर बार मेरे भीतर का कापुरुष मेरे अहम ” मैं ” के बोझ तले दुबका रहा , मैं अपना नाम छुपाता रहा और सरल हृदय से अपने छद्म रूप को त्याग कर यह कह ना सका –
” मैं वो नहीं ”
इस मैं ( अहम ) से मुक्ति का मार्ग कबीर वाणी में कुछ इस प्रकार है –
जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं ।।
================
शेक्सपियर ने कहा –
” नाम में क्या रखा है ”
गुलाब को किसी भी फूल के नाम से पुकारो उसकी सुगन्ध वही रहे गी।
आदमी का नाम , उसकी पहचान , उसकी प्रसिध्दि उसके काम उसके गुणों से होती है । कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो कहीं भी रहें उनके निष्काम सत्कर्म जग में नाम उजागर करते हैं । अर्थात अच्छे कर्म किये जाओ तद्नुसार नाम जग जाहिर अपने आप हो गा ।
पर भैय्या , ऊपर वर्णित तीनों प्रसंगों में अपनी निकृष्ट हरामपंथी विचारधारा के अनुसार मैं अपना परिचय न दे सका , जबकि श्रेष्ठतम कबीरपंथी विचारधारा के अनुसरण हेतु आज भी प्रयत्नशील हूं , जिसके अनुसार –
कबीरा जब हम पैदा हुए , जग हँसे,हम रोये ।
ऐसी करनी कर चलो , हम हँसे,जग रोये ॥
ईश्वर मेरी मदद करे ।

Language: Hindi
Tag: संस्मरण
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