बिखरे खुद को, जब भी समेट कर रखा, खुद के ताबूत से हीं, खुद को गवां कर गए।
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साहिलों को पाने की चाह में तूफां से हम टकरा गए,
खुशियाँ जो किस्तों में आती थी, उसे भी गवां गए।
थी चाहत की मरुभूमि में, एक पल की छाँव मिले,
उस चाहत में, अपनी मृगतृष्णा को भी गवां गए।
बारिशों में कभी आँखें, जो रोया करती थी,
चोट नये ऐसे मिले कि, आँसुओं को भी गवां गए।
एक सपने में, घर की दीवारें थीं दिखीं,
उस सपने की रुस्वाई में, शहर भी हम गवां गए।
सुबह की ख्वाहिश ने, रात भर जगा कर रखा,
उस सुबह की बेवफ़ाई थी ऐसी, कि रातें भी हम गवां गए।
वादों की चाभियां जो, हाथों ने थामी थी कभी,
तालों की खुदगर्जी में, वो चाभियां भी हम गवां गए।
बिखरे खुद को, जब भी समेट कर रखा,
खुद के ताबूत से हीं, खुद को गवां कर गए।